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तप क्या है?

 *तप क्या है? *

‘तप’ शब्द को सुनकर ही याद आती है उन लोगों की जो अपने को कष्ट देने में कुशल हैं।

‘तप’ से तुम्हारे मन में क्या खयाल उठता है? ‘तप’ शब्द तुम्हारे भीतर कोनसी आकृतियां उभारता है? आत्मदमन, आत्मपीडन। लेकिन तप से इसका कोई संबंध नहीं है।

तप का ठीक ठीक अर्थ इतना ही होता है कि जीवन में बहुत दुख हैं, इन दुखों को सहजता से, धैर्य से, संतोष से, अहोभाव से अंगीकार करना। और दुख पैदा करने की जरूरत नहीं है; दुख क्या कुछ कम है! पांव पांव पर तो पटे पड़े हैं। दुख ही दुख ही तो हैं चारों तरफ। लेकिन इन दुखों को भी वरदान की तरह स्वीकार करने का नाम तप है।

सुख को तो कोई भी वरदान समझ लेता है। दुख को जो वरदान समझे, वह तपस्वी है। जब बीमारी आये, उसे भी प्रभु की अनुकम्पा समझे; उससे भी कुछ सीखे। जब दुर्दिन आयें, तो उनमें भी सुदिन की संभावना पाये। जब अंधेरी रात हो, तब भी सुबह को न भूले। अंधेरी से अंधेरी बदली में भी वह जो शुभ्र बिजली कौंध जाती है, उसका विस्मरण न हो।

कुछ दुख आरोपित करने की जरूरत नहीं है; दुख क्या कम हैं? इसलिए मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि ‘संसार को छोड़ो; जंगल में जाओ; अपने को सताओ।’ संसार में कोई दुखों की कमी है, कि तुम्हें जंगल जाना पड़े! यहां तरह तरह के दुख हैं। जीवन चारों तरफ संघर्ष, प्रतियोगिता, वैमनस्य, ईर्ष्या, जलन, द्वेष-इन सबसे भरा है। एक दुश्मन नहीं, हजार दुश्मन हैं। जिनको तुम दोस्त कहते हो, वे भी दुश्मन हैं। कब दुश्मन हो जायेंगे कहना मुश्किल है।

       ओशो 

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