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तुम अपने चारों तरफ जो कुछ देखते हो वह तुम्हारा प्रतिबिंब ज्यादा है, यथार्थ कम

तुम अपने चारों तरफ जो कुछ देखते हो वह तुम्हारा प्रतिबिंब ज्यादा है, यथार्थ कम। तुम अपने को ही सब जगह प्रतिबिंबित देख रहे हो। और जिस क्षण तुम बदलते हो, तुम्हारा प्रतिबिंब भी बदल जाता है। और जिस क्षण तुम समग्रत: मौन हो जाते हो, शांत हो जाते हो, सारा संसार भी शात हो जाता है। संसार बंधन नहीं है; बंधन केवल एक प्रतिबिंब है। संसार मोक्ष भी नहीं है, मोक्ष भी प्रतिबिंब है। बुद्ध को सारा संसार निर्वाण में दिखाई पड़ता है। कृष्ण को सारा जगत नाचता—गाता, आनंद में, उत्सव मनाता हुआ दिखाई पड़ता है। उन्हें कहीं कोई दुख नहीं दिखाई पड़ता है।

लेकिन तंत्र कहता है कि तुम जो भी देखते हो वह प्रतिबिंब ही है, जब तक सारे दृश्य नहीं विदा हो जाते और शुद्ध दर्पण नहीं बचता—प्रतिबिबरहित दर्पण। वही सत्य है। अगर कुछ भी दिखाई देता है तो वह प्रतिबिंब ही है। सत्य एक है; अनेक तो प्रतिबिंब ही हो सकते हैं। और एक बार यह समझ में आ जाए—सिद्धांत के रूप में नहीं, अस्तित्वगत, अनुभव के द्वारा—तो तुम मुक्त हो, बंधन और मोक्ष दोनों से मुक्त हो।

नरोपा जब बुद्धत्व को उपलब्ध हुए तो किसी ने उनसे पूछा. ‘क्या आपने मोक्ष को प्राप्त कर लिया?’ नरोपा ने कहा. ‘हां और नहीं दोनों। हां, क्योंकि मैं बंधन में नहीं हूं; और नहीं, क्योंकि वह मोक्ष भी बंधन का ही प्रतिबिंब था। मैं बंधन के कारण ही मोक्ष की सोचता था।’

इसे इस ढंग से देखो। जब तुम बीमार होते हो तो स्वास्थ्य की कामना करते हो। यह स्वास्थ्य की कामना तुम्हारी बीमारी का ही अंग है। अगर तुम स्वस्थ ही हो तो तुम स्वास्थ्य की कामना नहीं करोगे। कैसे करोगे? अगर तुम सच में स्वस्थ हो तो फिर स्वास्थ्य की चाह कहां है? उसकी जरूरत क्या है?

अगर तुम यथार्थत: स्वस्थ हो तो तुम्हें कभी यह महसूस नहीं होता है कि मैं स्वस्थ हूं। सिर्फ बीमार, रोगग्रस्त लोग ही महसूस कर सकते हैं कि हम स्वस्थ हैं। उसकी जरूरत क्या है? तुम कैसे महसूस कर सकते हो कि तुम स्वस्थ हो? अगर तुम स्वस्थ ही पैदा हुए, अगर तुम कभी बीमार नहीं हुए, तो क्या तुम अपने स्वास्थ्य को महसूस कर सकोगे?

स्वास्थ्य तो है, लेकिन उसका अहसास नहीं हो सकता। उसका अहसास तो विपरीत के द्वारा, विरोधी के द्वारा ही हो सकता है। विपरीत के द्वारा ही, उसकी पृष्ठभुमि में ही किसी चीज का अनुभव होता है। अगर तुम बीमार हो तो स्वास्थ्य का अनुभव कर सकते हो; और अगर तुम्हें स्वास्थ्य का अनुभव हो रहा है तो निश्चित जानो कि तुम अब भी बीमार हो।

तो नरोपा ने कहा ‘हां और नहीं दोनों ही इसलिए कि अब कोई बंधन नहीं रहा, और नहीं इसलिए कि बंधन के जाने के साथ मुक्ति भी विलीन हो गई। मुक्ति बंधन का ही हिस्सा थी। अब मैं दोनों के पार हूं न बंधन में हूं और न मोक्ष में।’

धर्म को चाह मत बनाओ। धर्म को कामना मत बनाओ। मोक्ष को, निर्वाण को कामना का विषय मत बनाओ। वह तभी घटित होता है जब सारी कामनाएं खो जाती हैं।
ओशो