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अगर तुम सारे जगत को नाटक की तरह देख सको

अगर तुम सारे जगत को नाटक की तरह देख सको

अगर तुम सारे जगत को नाटक की तरह देख सको तो तुम अपनी मौलिक चेतना को पा लोगे। उस पर धूल जमा हो जाती है, क्योंकि तुम अति गंभीर हो। वह गंभीरता ही समस्या पैदा करती है। और हम इतने गंभीर हैं कि नाटक देखते हुए भी हम धूल जमा करते हैं। किसी सिनेमाघर में जाओ और दर्शकों को देखो। फिल्म को मत देखो, फिल्म को भूल जाओ; पर्दे की तरफ मत देखो, हाल में जो दर्शक हैं उन्हें देखो। कोई रो रहा होगा, कोई हंस रहा होगा, किसी की कामवासना उत्तेजित हो रही होगी। सिर्फ लोगों को देखो। वे क्या कर रहे हैं? उन्हें क्या हो रहा है? पर्दे पर छाया—चित्रों के सिवाय कुछ भी नहीं है—धूप—छांव का खेल है, पर्दा खाली है। लेकिन वे उत्तेजित क्यों हो रहे हैं?

वे हंस रहे हैं, रो रहे हैं, चीख रहे हैं। चित्र मात्र चित्र नहीं है, फिल्म मात्र फिल्म नहीं है। वे भूल गए हैं कि यह एक कहानी भर है। उन्होंने इसको गंभीरता से ले लिया है। चित्र जीवित हो उठा है, यथार्थ बन गया है।

और यही चीज सर्वत्र घट रही है। यह सिनेमाघरों तक ही सीमित नहीं है। अपने चारों ओर के जीवन को तो देखो; वह क्या है? इस धरती पर असंख्य लोग रह चुके हैं। जहां तुम बैठे हो, वहां कम से कम दस लाशें गड़ी हैं। और वे लोग भी तुम्हारे जैसे ही गंभीर थे। वे अब कहां हैं? उनका जीवन कहां चला गया? उनकी समस्याएं कहां गईं? वे लड़ते थे; एक—एक इंच जमीन के लिए लड़ते थे। वह जमीन पड़ी है और वे लोग कहीं नहीं हैं।

और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उनकी समस्याएं समस्याएं नहीं थीं। वे थीं, जैसे तुम्हारी समस्याएं समस्याएं हैं। वे गंभीर समस्याएं थीं, जीवन—मरण की समस्याएं थीं। लेकिन कहा गईं वे समस्याएं? और अगर किसी दिन पूरी मनुष्यता खो जाए तो भी धरती रहेगी, वृक्ष बड़े होंगे, नदियां बहेंगी और सूरज उगेगा; और पृथ्वी को मनुष्यता की गैर—मौजूदगी पर न कोई खेद होगा न आश्चर्य।-ओशो तंत्र–सूत्र–(भाग–3)–प्रवचन–37