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हम स्त्रियों के नब्बे प्रतिशत रोग

हम स्त्रियों के नब्बे प्रतिशत रोग

प्रश्न...
ऐसा कहा जाता है कि हम स्त्रियों के नब्बे प्रतिशत रोग मासिक धर्म की गड़बड़ी के कारण होते हैं और उन रोगों से मुक्त होने के लिए हम नाना प्रकार की औषधियों का उपयोग करती हैं, पर फिर भी स्वस्थ नहीं हो पातीं। आप परम वैद्य हैं, आप हमारे कष्टों और दुखों को भलीभांति जानते हैं, कृपा करके हमें मार्गदर्शन दें, हमें धर्म में गतिमान करें।

 

   कुछ बातें समझ लेने जैसी है।

पहली बात, यह बात सच है कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को बहुत सी अड़चनें होती हैं, बहुत से रोग होते हैं। लेकिन दूसरी बात भी खयाल रखना, कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को कुछ सुविधाएं हैं जो पुरुष को नहीं हैं। क्योंकि इस जगत में काटे अकेले नहीं आते, फूलों के साथ आते हैं। न फूल अकेले आते हैं, फूल भी कीटों के साथ आते हैं। यहां हर कड़वाहट में कोई मिठास छिपी होती है।

तो यह बात सच है कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को बहुत सी तकलीफें होती हैं। दूसरी बात भी इतनी ही सच है—जों खयाल में नहीं है—कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को कुछ सुविधाएं हैं जो पुरुष को नहीं हैं। जैसे समझो, मासिक धर्म के चार दिन, पांच दिन स्त्रियों के लिए बड़ी नकारात्मक दशा के दिन हैं। सारा चित्त निषेध सै भर जाता है। रुग्ण हो जाता है, क्रोध से भर जाता है, विषाद से भर जाता है, जीवन बोझिल मालूम होता है। जैसे एक छोटी सी मौत घटने लगी। ऐसी तकलीफ पुरुष को नहीं आती। लेकिन तुम्हें पता नहीं, ये चार— दिन में जो नकारात्मकता पैदा हो जाती है, वह बह भी जाती है चार दिन में और बाकी जो महीना है वह ज्यादा प्रफुल्लता का होता है। वैसी प्रफुल्लता पुरुष की नहीं होती। उसकी नकारात्मकता निकलने में तीस ही दिन लगते हैं। थोड़ी— थोड़ी निकलती है, इकट्ठी नहीं निकलती। स्त्रियों का रोग इकट्ठा चार दिन में निकल जाता है। क्योंकि अंततः तो दोनों के रोग एक जैसे हैं, निकलना तो पड़ेगा ही।

तो स्त्री चार दिन में थोक रूप से परेशान हो लेती है, पुरुष तीस दिन फुटकर रूप से परेशान रहता है। इसलिए पुरुष की पीड़ा कभी उतनी प्रगाढ़ नहीं दिखती जितनी स्त्री की दिखती है। लेकिन पुरुष की प्रफुल्लता भी उतनी प्रगाढ़ नहीं दिखती जितनी स्त्री की दिखती है। स्त्री की कोमलता, स्त्री का सौंदर्य, उसी मासिक धर्म के कारण है। वह जो मासिक धर्म सारे विषाद को, सारे जहर को बहा देता है, तो बाकी शेष महीने में स्त्री हल्की हो जाती है। पुरुष पूरे महीने उसी बेचैनी में रहता है। धीरे—धीरे करके उसकी बेचैनी निकलती है।

तो एक बात तो खयाल रखना, अगर बेचैनी की पूरी मात्रा खयाल में लो तो स्त्री—पुरुष में कोई भेद नहीं है, बेचैनी की मात्रा तो बराबर है। जैसे समझ लो कि सौ का आकड़ा है, तो चार दिन में स्त्री सौ का आकड़ा निकाल लेती है, और पुरुष को निकालने में तीस दिन लगते हैं। स्वभावत: रोज की मात्रा पुरुष पर कम पड़ती है, स्त्री की चार दिन में मात्रा बहुत हो जाती है। एक बात।

दूसरा पहलू बहुत कम देखा गया है। स्त्रियां भी नहीं देखतीं कि दूसरा पहलू भी छिपा है। स्त्रियों का जो गीत है, स्त्रियों का जो सौंदर्य है, स्त्रियों की जो कोमलता है, स्त्रियों का जो प्रसाद है, वह कहां से आ रहा है र वह चार दिन में जो निकल गया जहर, तो फिर से एकदम हल्कापन हो गया, बोझ उतर गया। अगर यह दूसरी बात भी खयाल में रहे, तो चार दिन का बोझ बहुत बोझ नहीं मालूम पड़ेगा। उसका लाभ भी ध्यान में रखना जरूरी है, एक बात।

दूसरी बात, मासिक धर्म के कारण उतनी गड़बड़ी नहीं हो रही है, जितनी गड़बड़ी होती है स्त्रियों के शरीर—तादात्म के कारण। स्त्रिया अपने को बहुत शरीर मानती हैं, इतना पुरुष नहीं मानता। पुरुष अपने को मन के साथ तादात्म करता है। स्त्री अपने को शरीर के साथ तादात्म करती है।

इसलिए स्त्री की उत्सुकता शरीर में होती है, दर्पण के सामने खड़ी है घंटों! पुरुष को समझ में ही नहीं आता कि दर्पण के सामने अपनी ही सूरत घंटों देखने का क्या प्रयोजन है! घंटों वस्त्र सम्हाल रही है। ऐसा कोई मौका ही नहीं होता जब कि स्त्री समय पर कहीं पहुंच जाए, क्योंकि वह उसका बार—बार मन बदल जाता है कि दूसरी साड़ी पहन लूं, कि इस तरह कर लूं कि उस तरह के बाल सजा लूं। पति हार्न बजा रहा है नीचे और वह तैयार ही नहीं हो पाती। हर तैयारी कम मालूम पड़ती है। स्त्री का शरीर—बोध बहुत प्रगाढ़ है।

मनुष्य के भीतर तीन तत्व हैं—आत्मा, मन और शरीर। पुरुष का रोग मन से जुड़ा है, स्त्री का रोग शरीर से जुड़ा है। इसलिए पुरुष के झगड़े और ढंग के होते हैं। पुरुष का झगड़ा होता है सिद्धात का, शास्त्र का, हिंदू का, मुसलमान का, राजनीति का; इस विचार का, उस विचार का, हम इस विचार को मानते, तुम उस विचार को मानते। स्त्री को समझ में नहीं आता कि क्या बकवास कर रहे हो! अरे, कुरान मानो कि बाइबिल मानो, कुछ भी मानो, रखा क्या है, सब बराबर है। असली सवाल तो शरीर है—सुंदर कौन है? कीमती साड़ी किसने पहनी है? बहुमूल्य हीरे—जवाहरात किसके पास हैं? यह बात सोचने जैसी है।

स्त्री इसमें बेचैन नहीं होती, जब एक दूसरी स्त्री उसके सामने से निकलती है, तो वह यह नहीं देखती कि यह हिंदू है कि मुसलमान है कि ईसाई है कि पारसी है, वह देखती है यह कि अच्छा, तो यह साड़ी इसने खरीद ली! तो ये गहने इसने बना लिए! तो मैं पिछड़ गयी! स्त्रियों की चर्चाएं सुनते हो? बैठकर जब वे चर्चाएं करती हैं तो वे इसी तरह की चर्चाएं हैं, बहुत शरीर से जुड़ी हैं, शरीर से बंधी हैं।

तो इस कारण अड़चन आती है। क्योंकि मासिक धर्म में शरीर बड़ी पीड़ा से गुजरता है और स्त्रियों का बहुत जोर शरीर से है कि हम शरीर हैं, इसलिए अड़चन होती है। अड़चन असली में मासिक धर्म के कारण नहीं हो रही है, शरीर के साथ जुड़े होने के कारण हो रही है।

तो अड़चन से बाहर होना हो तो धीरे— धीरे शरीर से अपना जोड़ कम करना चाहिए। यह बोध धीरे—धीरे लाना चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूं। यह औषधि। खासकर मासिक धर्म के चार दिनों में तो निरंतर यह चिंतन और भाव करना चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूं। बाकी समय भी यह चिंतन चलना चाहिए, यह भाव चलना चाहिए। यह भाव जितना घना होकर भीतर बैठ जाएगा कि मैं शरीर नहीं हूं—और इस भाव को घना करने के लिए जो—जो जरूरी हो, वह भी करना चाहिए।

इसलिए तो मैं कहता हूं तुमने संन्यास ले लिया तो बस अब गैरिक वस्त्र पहनो, और बाकी सब रंग समाप्त हुए। अब इनका चिंतन न करना पड़ेगा, अब विचार न करना पड़ेगा। संन्यासी स्त्री का फायदा देखते हैं, जल्दी तैयार हो जाती है। कुछ तैयार होने को ज्यादा है नहीं। वह एक ही रंग है, रंगों में कोई चुनाव नहीं करना है, बहुत साड़ियां नहीं हैं।

स्त्रियां मेरे पास संन्यास लेने आती हैं, पुरुष लेने आते हैं, उनके रुकने के कारण अलग होते हैं। एक स्त्री ने कहा कि कैसे संन्यास लूं, तीन सौ साड़ियां हैं, इनका क्या होगा? किसी पुरुष ने अब तक मुझसे नहीं कहा कि इतने कपड़े हैं, इनका क्या होगा? उसका कारण दूसरा होता है। वह कुछ और कारण बताता है। लेकिन स्त्री का कारण सीधा—साफ है कि उसके पास तीन सौ साड़िया हैं, ये सब बेकार चली जाएंगी अगर संन्यास ले लिया तो। फिर इनका क्या होगा? स्त्रियां मुझसे पूछती हैं, संन्यास लेने के बाद गहने इत्यादि पहन सकते कि नहीं?

तो जिन—जिन बातों से शरीर का तादात्म्य बढ़ता है—वस्त्र हैं, गहने हैं, सजावट है—उनको धीरे—धीरे विसर्जित कर दो। और तुम पाओगे कि मासिक धर्म को जितना प्रभाव था, वह उसी मात्रा में कम होने लगा जिस मात्रा में शरीर से जोड़ हटने लगा। शरीर के साथ अपने को थोड़ा शिथिल करो। शरीर के साथ जोड़कर अपने को मत देखो। शरीर से अपने को भिन्न देखो। और ऐसा कोई अवसर मत नको जब शरीर से भिन्न देखने का मौका मिले, जरूर देख लो। दर्पण के सामने भी खड़े होकर यही खयाल करो कि यह शरीर मैं नहीं हूं। तो कोई हर्जा नहीं, तीन घंटे दर्पण के सामने खड़े होना है तो खड़े रहो, मगर यही खयाल करो कि यह शरीर मैं नहीं हूं। इस खयाल की गहराई के बढ़ने के साथ ही साथ मासिक धर्म की पीड़ा एकदम कम होती चली जाएगी।

और तब तुम चकित होकर पाओगी कि जैसे—जैसे मासिक धर्म की पीड़ा कम हो गयी है, वैसे—वैसे मासिक धर्म का जो लाभ है, वह तुम्हें दिखायी पड़ना शुरू हो जाएगा। कि चार दिन में निपट गए, यह अच्छा ही है। यह समझदारी ही है। जल्दी निपट गए। माना कि आग तेज थी, मगर जल्दी निपट गए। बाकी दिन जो बचते हैं, वे ज्यादा सुख—शांति के हैं।

मासिक धर्म की बात कुछ नयी नहीं है। धर्म शास्त्रों में बड़ा विचार हुआ है। बुद्ध—महावीर को भी विचार करना पड़ा है। क्योंकि यह प्रश्न प्राचीन है। यह सदा से है। कोई आज की ही स्त्री शरीर से नहीं जुड़ गयी है, सदा से जुड़ी रही है। स्त्री का रोग है शरीर, पुरुष का रोग है मन। और चाहे तुम शरीर से जुड़े रहो, चाहे मन से, दोनों हालत में तुम आत्मा से चूकते हो। मन से जुड़े हो तो भी आत्मा से चूक जाओगे, शरीर से जुड़े हो तो भी आत्मा से चूक जाओगे।

पुरुष को छोड़ना है मन के साथ अपना लगाव, स्त्री को छोड़ना है तन के साथ अपना लगाव। दोनों को बराबर मेहनत करनी है। तन के साथ लगाव छोड़ने में उतनी ही मेहनत है जितनी मन के साथ लगाव छोड़ने में हैं। और दोनों से लगाव छूट जाने पर जो शेष रह जाता है, अ—लगाव की जो दशा, असंग दशा, वहीं आत्मबोध है। वही आत्मबोध स्वास्थ्य है।

पूछा है तुमने कि ‘स्वस्थ होने की कोई औषधि?

स्वस्थ होने की एक ही औषधि है, इस बात की प्रतीति कि मैं आत्मा हूं—न शरीर, न मन। मन के रोग हैं, शरीर के रोग हैं।

तुम जानकर चकित होओगे, स्त्रिया कम पागल होती हैं पुरुषों की बजाय, संख्या पुरुषों की दुगुनी है। पुरुष दोगुने ज्यादा पागल होते हैं। क्यों? क्योंकि स्त्रियों का पागलपन थोक मात्रा में निकल जाता है, पुरुषों का पागलपन अटका रह जाता है। फिर स्त्रियां कम पागल होती हैं, क्योंकि उनका लगाव तन से है, तन थोड़े ही पागल होता है। पुरुष पागल होते हैं, क्योंकि उनका लगाव मन से है, मन पागल होता है। ज्यादा पुरुष आत्म हत्याएं करते हैं—दुगुने पुरुष।

यह तुम्हें थोड़ी हैरानी होगी। क्योंकि आमतौर से तुम स्त्रियों को ज्यादा धमकी देते पाओगे आत्महत्या की। करतीं नहीं, धमकी देती हैं, उनकी धमकी की बहुत चिंता मत लेना। और अगर करती भी हैं तो इतने इंतजाम से करने की कोशिश करती हैं कि बचा ली जाएं। अगर नींद की गोली भी खाएंगी तो पांच—छह—सात से ज्यादा नहीं खातीं। वह सिर्फ धमकी है। दस स्त्रियां चेष्टा करती हैं आत्महत्या की, नौ बच जाती हैं। दस पुरुष चेष्टा करते हैं, पांच बच पाते हैं। पुरुष की चेष्टा, वह हिम्मत से घुस ही जाता है अंदर एकदम, फिर वह सोचता ही नहीं कि यह अब क्या करना है! वह बिलकुल पागल हो जाता है।

दुगुने पुरुष आत्महत्या से मरते हैं, दुगुने पुरुष पागल होते हैं। और इस सबके मूल में मासिक धर्म का सहारा है स्त्री को। चार दिन में उसका सारा पागलपन निकल जाता है—रों लेती, धो लेती, पीड़ा में तडफ लेती, सब तरह के विषाद से भर जाती, फिर हल्की हो जाती।

स्त्री का तन कष्ट पाता है, पुरुष का मन कष्ट पाता है। और कष्ट तो जारी रहेगा, जब तक आत्मा से जोड़ न हो जाए। फिर पुरुष का कष्ट हो, स्त्री का कष्ट हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता—बराबर हैं दोनों।

तो जैसे—जैसे तुम तन और मन से अपने को तोड़ते चलो, वैसे—वैसे स्वस्थ होते चलो। आत्मा में डूब जाना ही स्वस्थ होने का उपाय है !

एस धम्‍मो सनंतनो–(प्रवचन–72)

ओशो