Skip to main content

अमृत-पाथेय

अमृत-पाथेय

प्रिय विजय,

स्नेह । मैंने इस बीच कितनी बार सोचा कि
दो-शब्द तुम्हें लिखूँ, पर वे दो-शब्द भी खोजे
न मिले ।
सान्त्वना दे सकें, एेसे शब्द हैं भी नहीं ।

इसलिए, चुप ही रह गया था ।

पर कभी-कभी मौन ही कुछ कहने का
एकमात्र मार्ग होता है ।

श्री भीखमचन्द जी के शरीर-त्याग की
ख़बर मुझे दो-तीन दिन बाद ही मिल गयी थी ।

मैं जानकर ही "शरीर-त्याग" (शब्द का)
प्रयोग कर रहा हूँ ।

जब भी उनसे मिला था, तो उनकी आँखों
में मुझे अनन्त और अमृत के लिये एक तीब्र प्याश
अनुभव हुई थी ।

फिर, अनेक बार जब उनसे मिला, तो
उनके कृश और दुबले हो गये शरीर को देखकर
दु:ख हुआ था ।

लेकिन, आँखों में आ गयी शान्ति, शक्ति
और ज्योति को देखकर आनन्द भी हुआ था ।

यह अनुभव मुझे हुआ था कि उन्होंने कुछ
'पाया' है ।

शरीर के पार जो है, उसकी किरण के दर्शन
उन्हें हो रहे थे ।

इसलिए ही, मृत्यु का भी वे आनन्द से
स्वागत कर सके ।

यह बहुत बड़ी बात है ।

शायद, जीवन में इससे बड़ी कोई दूसरी
बात ही नहीं है ।

आनन्द से मृत्यु का स्वागत, अमृत के
अनुभव की सूचना है ।

जीवन की सार्थकता---मृत्यु के भी अानंद
में परिणत हो जाने में है ।

वस्तुत:, जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह जीवन
का नहीं, केवल जन्म का अन्त है ।

जीवन--जन्म और मृत्यु दोनों के अतीत है.

जो इस जीवन कि हल्की-सी भी झलक पा
लेता है, मृत्यु उसे मृत्यु नहीं रह जाती है ।

और, जिसे वैसी झलक का सौभाग्य
मिलता है, वह अपने आगे की यात्रा पर सम्यक्
पाथेय लेकर जा रहा है ।

मैं देख रहा हूँ कि श्री भीखमचन्द जी के
नाम से जो यात्री हमारे बीच था, वह एेसा ही
पाथेय लेकर अपनी अनन्त यात्रा पर गया है ।

हम उस यात्री के लिए मंगल-यात्रा की
कामना करें ।

और, उनके जाने के दु:ख का कुछ कारण
नहीं है ।

हम जिस जगत् में हैं, वह सच ही कोई
स्थायी आवास नहीं है ।

आज नहीं कल, हमें भी अनन्त की यात्रा
पर जाना है ।

यह दिख सके, तो दु:ख विलीन हो
जाता है । ।

अज्ञान ही दु:ख है ।

{__________}
रजनीश के प्रणाम
८-५-१९६५

[प्रति:श्री विजयबाबू देशलहरा,बुलढाना,महाराष्ट्र]