Skip to main content

जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि!

जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि!

इस संसार में सभी तो कुरूप है, इस संसार में हर चीज तो सड़ जाती है, इस संसार में हर चीज तो कुरूप हो जाती है, सुंदरतम स्त्री भी एक दिन कुरूप हो जाती है। 
और जवान से जवान आदमी भी एक दिन मुर्झा जाता है, सुंदर से सुंदर देह भी तो एक दिन चिता पर चढ़ा देनी पड़ेगी। करोगे क्या? यहां सुंदर है क्या? इस जगत की असारता को ठीक से पहचानो।

इस जगत की व्यर्थता को ठीक से पहचानो। ताकि इसकी व्यर्थता को देखकर तुम भीतर की सीढ़ियां उतरने लगो। सौंदर्य भीतर है, बाहर नहीं। सौंदर्य स्वयं में है। और जिस दिन तुम्हारे भीतर सौंदर्य उगेगा, उस दिन सब सुंदर हो जाता है। तुम जैसे, वैसी दुनिया हो जाती है। 

जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि! तुम सुंदर हो जाओ, और तुम्हारे सुंदर होने का अर्थ, कोई प्रसाधन के साधनों से नहीं; ध्यान सुंदर करता है। ध्यान ही सत्यं शिवं सुंदरम् का द्वार बनता है। जैसे-जैसे ध्यान गहरा होगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर एक अपूर्व सौंदर्य लहरें ले रहा है। इतना सौंदर्य कि तुम उंडेल दो तो सारा जगत सुंदर हो जाए !!...ओशो....