ओशो-पत्र
गूँगे का गुड़
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मेरे प्रिय,
प्रेम । नहीं, वर्णन नहीं कर सकोगे
उसका, जो कि अनुभव के क्षितिज पर
ऊगना प्रारम्भ हुआ है ।
क्योंकि, सब शब्द ज्ञात हैं ।
और, जो उतर रहा है, प्राणों के गहरे
में, वह नितान्त अज्ञात है ।
उसकी प्रत्यभिज्ञा (Recognition)
भी तो नहीं होती है ।
जिसे पूर्व कभी जाना ही नहीं; उसे
पहचानोगे कैसे ?
और, मजा तो यह है कि वह
अपूर्व-ज्ञात सदा-सदैव का जाना हुआ
ही अनुभवति होता है !
यही है रहस्य---यही है पहेली, जो
कि दो और दो चार की भाँति सीधी और
साफ और सुलझी हुई भी है !
आनन्द है----निर्विचार स्व-प्रतिष्ठा में
प्रिय सोहन,
प्रेम । धूप घनी हो गयी है और मैं एक वृक्ष की
छाया में बैठा हूँ । मैं अकेला हूँ और आकाश में
उड़ते बादलों को देख रहा हूँ ।
बादलों की भाँति ही बेजड़, विचार होते हैं ।
और, जैसे बादल आकाश को घेर लेते हैं, एेसे
ही विचार आत्मा को ।
बादलों को हटते ही आकाश के दर्शन होते हैं ।
और, विचारों के हटते ही आत्मा के ।
ओर, विचारशून्य हो, स्वयं को जानना ही
आनन्द है ।
जब कोई इस भाँति स्वयं में स्थिर होता है,
तभी आनन्द को उपलब्ध हो जाता है ।
संकल्प की जागृति
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मेरे प्रिय,
प्रेम । आगे बढ़ें । लक्षण शुभ हैं ।
ध्यान की गंगा अभी गंगोत्री में है । लेकिन, पहुँचना
चाहती है सागर तक ।
फिर, सागर दूर भी नहीं है ।
संकल्प पूर्ण है, तो गंगोत्री ही सागर बन जाती है ।
संकल्प की कमी ही सागर की दूरी है ।
संकल्प को संगृहीत करें, क्योंकि संकल्प का बिखराव
ही संकल्प हीनता है ।
जैसे, किरणें संगृहीत हो अग्नि बन जाती है, एेसे ही
संगृहीत संकल्प शक्ति बन जाता है ।
यह शक्ति सब में है ।
यह शक्ति स्वरूपसिद्ध अधिकार है ।
इसे जगायें और इकट्ठा करें ।
निष्प्रश्न चित्त में सत्य का आविर्भाव
मेरे प्रिय,
प्रेम । आपका पत्र पाकर बहुत
आनन्दित हूँ ।
प्यास हो सत्य की, तो एेसी हो ।
आह ! प्रश्न भी नहीं है !
तब जान रखना कि उत्तर भी
दूर नहीं है ।
निष्प्रश्न चित्त में ही तो वह
उपलब्ध होता है ।
वहाँ सबको मेरे प्रणाम ।
{__________}
रजनीश के प्रणाम
२-१२-१९६७
[प्रति: श्री चन्द्रकान्त पी० सोलंकी, गुजरात]
ध्यान के बीज से सत्य-जीवन का अंकुरण
परम प्रिय,
प्रेम । पत्र मिले हैं ।
धैर्य से समय की प्रतीक्षा करें ।
बीज बो दिये गये हैं, निश्चय ही समय पाकर
वे अंकुरित होंगे ।
अति जल्दी में हानि ही पहुँच सकती है ।
ध्यान के बीज से सत्य जीवन का
अंकुरण होगा ही ।
लेकिन, अत्यन्त प्रेमपूर्ण प्रतीक्षा
आवश्यक है ।
और, मैं निश्चिन्त हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ
कि आप अनन्त प्रतीक्षा के लिये भी समर्थ हैं ।
{__________}
रजनीश के प्रणाम
२-१२-१९६६
[प्रति : श्री आर० के० नन्दाणी, राजकोट]
सरोवर का किनारा और जन्मों-जन्मों की प्यास
प्यारी शोभना,
प्रेम । तेरे पत्र मिले हैं । उनमें तूने अपना
हृदय ही उँडे़ल दिया है ।
मैं तेरी अनंत प्रतीक्षा को जानता हूँ ।
जन्म-जन्म की वह प्यास ही तुझे मेरे
इतने निकट ले आई है ।
वह प्यास ही तो मेरे और तेरे बीच सेतु
बन गई है ।
आह ! सरोवर के किनारे खड़े रहने से
तो प्यास नहीं बुझती है ?
{___________}
रजनीश के प्रणाम
५-८-१९६८
[प्रति : माँ योग शोभना, बंम्बई]
जो है---है, फिर द्वन्द्व कहॉं
प्रिय गीतगोविन्द,
प्रेम । निराश क्यों होते हो ?
क्या निराशा अति-आशा का ही परिणाम नहीं है ।
उदास क्यों होते हो ?
क्या उदासी अति-अपेक्षा (Expectation) की ही
छाया नहीं है ।
निराशा पूर्ण हो, तो फिर निराश होने का उपाय नहीं
रहता है ।
उदासी पूर्ण हो, तो वह भी उत्सव बन जाती है ।
इसलिए कहता हूँ : द्वन्द्व छोड़ो ।
यह धूप-छॉंव का खेल छोड़ो ।
जागो और जानो कि जो है---है ।
अंधकार तो अंधकार ।
मृत्यु तो मृत्यु ।
जहर तो जहर ।
और फिर देखो : अंधकार कहॉं है !
जीवन-संघर्ष के बीच फलित सम्यक शांति
प्रिय नर्मदा (नीता),
प्रेम । तेरा पत्र ।
हृदय में जो हो रहा है, उसे जानकर
आनन्दित हूँ ।
ध्यान गहरी-से-गहरी शान्ति ले आयेगा ।
अच्छे लक्षण प्रगट हो रहे हैं ।
लेकिन, स्मरण रहे कि शान्ति भी दो
प्रकार की होती है ।
एक जीवित की और एक मृत की ।
मैं दूसरे प्रकार की शान्ति के पक्ष में
नहीं हूँ ।
क्योंकि, वह वस्तुत: शान्ति ही नहीं है ।
जीवन से भागकर जो शान्ति मिलती है,
वह झूठी है ।
वह शान्ति नहीं, वरण अशान्ति को प्रकट
करने वाले अवसरों का अभाव मात्र है ।
एेसा ही संसार है
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प्यारी मौनू,
प्रेम ! बुद्ध अक्सर कहते थे एक कथा.
वह मनुष्य की ही कथा है.
वह कथा पूरे संसार की ही कथा है.
कहते थे वे : एक यात्री किसी पर्वतीय
निर्जन में पीछा करते एक पागल हाथी से
बचने को भाग रहा है.
निश्चय ही जीवन और मृत्यु का सवाल
है--उसके लिए और वह पूरी शक्ति लगाकर
दौड़ता है और पहुँच जाता है, एक एेसी
चट्टान के निकट, जिसके आगे कि भयंकर
गड्ढा है और जिस पर कि मार्ग भी समाप्त
होता है और पीछे लौटना संभव नहीं है,
क्योंकि हाथी अभी भी पीछे चला आ रहा
है.
मरता क्या न करता !
ज्वलन्त प्यास है द्वार--समाधि का
प्रिय कोठारी जी,
स्नेह । संध्या बीते अंधेरे में बैठा हूँ । कल से आपका स्मरण है ।
पत्र मिला है, तब से आपके सम्बन्ध में सोचता हूँ ।
एक प्यास आपमें अनुभव करता हूँ ।
आपमें जीवन के सत्य को जानने की उत्कट अभिलाषा है ।
उस प्यास को और गहराना है ।
इतना कि प्यास ही प्यास रह जाये ।
फिर, द्वार अपने से खुल जाते हैं ।
हम चाहना ही नहीं जानते, अन्यथा सत्य कितना निकट है !
सत्य पाने की चाह को श्वास-श्वास में भर लेना है ।
पूरा मन-प्राण उसके लिये ही जल उठता है ।
भक्ति-योग में इसे 'विरह' कहा है ।
अमृत-पाथेय
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प्रिय विजय,
स्नेह । मैंने इस बीच कितनी बार सोचा कि
दो-शब्द तुम्हें लिखूँ, पर वे दो-शब्द भी खोजे
न मिले ।
सान्त्वना दे सकें, एेसे शब्द हैं भी नहीं ।
इसलिए, चुप ही रह गया था ।
पर कभी-कभी मौन ही कुछ कहने का
एकमात्र मार्ग होता है ।
श्री भीखमचन्द जी के शरीर-त्याग की
ख़बर मुझे दो-तीन दिन बाद ही मिल गयी थी ।
मैं जानकर ही "शरीर-त्याग" (शब्द का)
प्रयोग कर रहा हूँ ।
जब भी उनसे मिला था, तो उनकी आँखों
में मुझे अनन्त और अमृत के लिये एक तीब्र प्याश
अनुभव हुई थी ।
प्रेम मुक्ति है और मोह बन्धन
प्रिय कोठारी जी,
स्नेह । प्रेम व मोह में भेद पूछा है ।
मैं सब भेदों के पीछे एक ही भेद देखता हूँ ।
वह एक मूल भेद ही सब में प्रकट होता है ।
वह भेद क्या है ?
मैं या तो अपने को जानता हूँ या नहीं जानता हूँ ।
'मैं कौन हूँ ?' यह न जानने से जो प्रीति पैदा होती है,
वह मोह है ।
'मैं कौन हूँ'---यह जानने से प्रेम आता है ।
प्रेम ज्ञान है ।
मोह अज्ञान है ।
प्रेम निरपेक्ष है---सबके, समस्त के प्रति है ।
वह 'पर' निर्भर नहीं है । वह स्वयं में है ।
वह 'किसी से' नहीं होता है । बस, होता है ।
तेरी मर्जी पूरी हो
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मेरे प्रिय,
प्रेम । समर्पण---पूर्ण समर्पण ( Total surrender ) के
अतिरिक्त प्रभु के मंदिर तक पहुँचने का और कोई भी मार्ग नहीं है ।
छोड़ें --- सब उस पर छोड़ें ।
नाहक स्वयं के सिर पर बोझ न ढोवें ।
जो उसकी मर्ज़ी---इस सूत्र को सदा स्मरण रखें ।
जीसस ने कहा है : 'तेरी मर्जी पूरी हो---Thy Will Be Done.'
इसे स्वयं से कहते रहें ।
चेतन से अचेतन तक यही स्वर गूँजने लगे ।
जागते---सोते---यही धुन गूँजने लगे ।
और फिर, किसी भी क्षण जैसे ही समर्पण पूरा होता है,
समाधि घटित हो जाती है ।
सत्य प्रेम की कसौटी
मेरे प्रिय,
प्रेम । सत्य के मार्ग में काँटे हैं---थोड़े नहीं, बहुत ।
लेकिन, उनमें ही सत्य प्रेम की परीक्षा भी है ।
सत्य के फूल जिन्हें पाना है, उन्हें कॉंटों से गुजरना ही पड़ता है ।
सत्य सस्ता नहीं है ।
कभी नहीं था, और कभी होगा भी नहीं ।
मूल्य चुकाओ---और घबड़ाओ नहीं ।
सूली के पार सिंहासन है ।
{______________}
रजनीश के प्रणाम
१४-१२-१९७०
[प्रति : श्री अखिलानन्द तिवारी, धनबाद, बिहार]
संसार और संन्यास में द्वैत नहीं है
प्रिय अगेह भारती,
प्रेम । बाह्य और अंतस् में
समस्वरता लाओ ।
पदार्थ और परमात्मा में विरोध
नहीं है ।
घर और मन्दिर को दो जाना
कि उलझे ।
संसार और संन्यास में द्वैत
नहीं है ।
एक को ही देखो-----दसों
दिशाओं में ।
क्योंकि, एक ही है ।
लहरों की अनेकता भ्रम है ।
सागर का एेक्य ही सत्य है ।
{____________}
रजनीश के प्रणाम
८-३-१९७१
[प्रति: स्वामी अगेह भारती, जबलपुर]
प्रेम के निकट
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प्यारे किरण,
प्रेम । निश्चय ही जब कुछ कहने जैसा होता है,
तो वाणी ठिठक जाती है ।
और शब्दों की भीड़ की जगह नि:शब्द का
शून्याकाश उभर आता है ।
प्रेम के निकट ।
प्रार्थना के द्वार पर ।
परमात्मा के स्मरण में ।
लेकिन, तब मौन भी बोलता है और शून्य में
भी सम्वाद होता है ।
जब भी तुम मेरे पास आये, तभी मैंने जाना कि
बादलों से भरे आये थे, लेकिन अचानक आकाश
से ख़ाली हो गये हो ।
और, इसके अतिरिक्त मेरे पास भी तो नहीं
आ सकते थे न ?
शून्य के पास शून्य होकर ही तो जाया जा
सकता है न ?
शब्दहीन सम्बाद में दीक्षा
प्रिय ब्रह्मदत्त,
प्रेम । साथ ही हूँ तुम्हारे ।
बोलता भी हूँ ।
तुम सुनते भी हो ।
लेकिन, निश्चय ही अभी समझ
नहीं पाते हो ।
यह द्वार है नया ।
आयाम है अपरिचित ।
भाषा है अनजान ।
पर धैर्य रखो ।
'धीरे-धीरे' सब समझ पाओगे ।
शब्दहीन सम्बाद में दीक्षा दे रहा हूँ ।
मौन हो सुनते रहो ।
समझने की अभी चिन्ता ही न करो ।
क्योंकि, उससे भी मौन भंग होता है ।
और, मन गति करता है ।
अभी तो, बस सुनो ही ।
सुनने की गहराई ही समझने का
जन्म बनती है ।
दिये की ज्योति का एक हो जाना
प्यारी शिरीष,
प्रेम । यौन केन्द्र (Sex Centre)
प्रकृति से संबंध का द्वार ।
और, ठीक एेसे ही सहस्रार परमात्मा
से सम्बन्ध का ।
ऊर्जा (Energy) एक ही है ।
वही काम में बहती है, वही राम में ।
लेकिन, यात्रायें भिन्न हैं ।
दिशायें भिन्न हैं ।
परिणाम भिन्न हैं ।
उपलब्धियॉं भिन्न हैं ।
ध्यान प्रारम्भ होता है---यौन-केन्द्र
से ही ।
क्योंकि, वहीं मनुष्य है ।
पर, गहराई के साथ-साथ उर्ध्वगमन
होता है ।
चेतना पानी की जगह अग्नि बन
जाती है ।
अब अवसर आ गया है
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प्यारी मृणाल,
प्रेम । समय आ जाये अनुकूल ।
घड़ी हो परिपक्व ।
तभी तो पुकारा जा सकता है ।
कच्चे फलों को पृथ्वी पुकारे भी तो
उसकी गोद में नहीं गिरते हैं !
और, अब अवसर आ गया है,
इसलिए पुकारता हूँ ।
और, इसलिए ही तो तू सुन
भी पाती है !
अन्यथा, पुकारना तो सदा
आसान, पर सुन पाना तो उतना
आसान नहीं है ।
{____________}
रजनीश के प्रणाम
८-३-१९७१
[प्रति : सौ० मृणाल जोशी, पूना]
यात्रा है अनंत
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प्यारी कुसुम,
प्रेम । यात्रा है अनंत ।
माना ।
पर एक-एक बूँद से सागर
भर जाता है ।
यात्रा है कठिन ।
माना ।
पर मनुष्य के छोटे-से हृदय
में उठे संकल्प से हिमालय भी तो
झुक जाता है !
{____________}
रजनीश के प्रणाम
८-३-१९७१
[प्रति : श्रीमती कुसुम, लुधियाना]
जिसने स्वयं को जाना
प्यारी नीलम,
प्रेम । अंधेरा है बहुत---निश्चय ही
उदासी है ।
मरघट-सी गहरी उदासी है ।
लेकिन, उसका मूल-स्रोत स्वयं का
अज्ञान है ।
जाना जिसने स्वयं को, वह आलोक
से भर जाता है ।
नृत्य करते आनन्दमग्न उत्सव
से भर जाता है ।
{____________}
रजनीश के प्रणाम
८-३-१९७१
प्रति: श्रीमती नीलम अमरजीत, लुधियाना.
काश ! इतना समय होता
प्रिय डॉक्टर,
प्रेम । काश ! इतना समय होता
हाथों में, जितना आप तट पर खड़े-खड़े
सोच कर गँवा रहे हैं ?
और, फिर समय भी बचे, लेकिन
जरूरी कहॉं है कि अवसर भी बचे ?
कबीर की पंक्ति है : "मैं बौरी खोजन
गई, रही किनारे बैठ ।"
इसे कंठस्थ कर लें और यूँ ही फुरसत
में कभी-कभी दुहराते रहें !
"जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ ।।"
{____________}
रजनीश के प्रणाम
८-३-१९७१
[प्रति : डॉ हेमन्त शुक्ल, जूनागढ़]
मन पारा है
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प्रिय आनन्द ब्रह्म,
प्रेम । तुम्हारा ध्यान का अनुभव
बहुत सांकेतिक है ।
ध्यान गहराता है, तो एेसा ही
लगता है ।
जैसे कि मन पारा है---है भी और
छूता भी है । और फिर भी चिपकता नहीं
है ।
इसे और साधो ।
नये-नये द्वार खुलेंगे और नये-नये
साक्षात् होंगे ।
{____________}
रजनीश के प्रणाम
१०-३-१९७१
[प्रति : स्वामी आनंद ब्रह्म, पूना]
बहुत विचार में न पड़ें
प्रिय आत्मन्,
प्रेम । आपके दोनों पत्र मिले हैं ।
बहुत विचार में न पड़ें ।
विचार से सत्य तक जाने का कोई
मार्ग नहीं है ।
मार्ग है : ध्यान ।
उसकी ओर जितने बढें़गे, उसी मात्रा में
शान्ति, आनन्द और आत्मा की ओर गति होगी ।
ध्यान जब पूर्ण होता है, तभी अन्तस्-चक्षु
खुलते हैं ।
और, सत्य का साक्षात् होता है ।
सत्य तो सतत मौजूद है, लेकिन हम
अन्धे हैं ।
{___________}
रजनीश के प्रणाम
२-३-१९६६
[प्रति: आर० के० नन्दाणी, राजकोट, गुजरात]
शाश्वत आनन्द के राज्य में प्रतिष्ठा
प्रिय चिदात्मन्,
आपका प्रीतिपूर्ण पत्र मिला ।
आपने एक अभिशाप को वरदान अनुभव
किया है, यह जानकर मैं अत्यन्त आनन्दित
हुआ हूँ ।
शरीर तो आज है, कल नहीं होगा ।
पर, उसके भीतर कुछ है---जो कल भी था,
आज भी है और कल भी होगा ।
वस्तुत:, उस अन्तस् के जगत् में आज-कल
नहीं है ।
वहाँ समय नहीं है ।
वह तो है : शाश्वत---और सनातन ।
वह शुद्ध 'होना मात्र' है ।
इस शाश्वत को अनुभव करना है ।
उसके अनुभव के अभाव में जीवन में
सब-कुछ भी हो, तो भी कुछ भी नहीं है ।
वर्तमान में जीना अद्भुत आनंद है
प्यारी सोहन,
सुबह हो गयी है । सूरज निकल रहा है और
रात्रि की सारी छायाएँ विलीन हो गयी हैं ।
कल बीत गया है और एक नये दिन का
जन्म हो रहा है ।
काश ! इस नये दिन के साथ हम भी नये
हो पावेें ?
चित्त पुराना ही रह जाता है । वह बीते कल
में ही रह जाता है । और इस कारण नये के स्वागत
और स्वीकार में वह समर्थ नहीं हो पाता ।
चित्त का प्रतिक्षण पुराने के प्रति मर जाना
बहुत आवश्यक है ।
तभी वह वर्तमान में जी पाता है ।
और, वर्तमान में जीना अद्भुत आानंद है !
वहाँ सबको मेरे प्रणाम कहना ।
[{}ॐ{}]-“मन्त्रमूलं——गुरुर्वाक्यं”-[{}ॐ{}]
[{}ॐ{}]-“मन्त्रमूलं——गुरुर्वाक्यं”-[{}ॐ{}]
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17 जुलाई सन् 1933 को जन्मी, अोशो की सबसे
बड़ीदीदी, (ओशो से डेढ़ साल छोटी बहन) श्रीमती
रसा फौजदार, उर्फ मा योग भक्ति ने दि० 9 अप्रैल
2020 को होशंगाबाद में अपनी देह त्यागी। एक
दिन पहले ही उन्होंने सबको बतादिया था कि कल
मैं विदा हो जाऊँगी।
सक्रिय ध्यान विधि के बारे में एक पत्र ओशो ने उन्हें
लिखा था, जो यहाँ संलग्न है। यह सभी साधकों के
लिए उपयोगी होगा।
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प्यारी योग भक्ति !