शुभ चेतना का साथ...
वह व्यक्ति को मूल्य नहीं देना चाहता जो सदा से ही अशुभ है, क्योंकि व्यक्ति ही विद्रोह का तत्व है। इसलिए अशुभ की शक्तियां समूह को मानती हैं, व्यक्ति को नहीं मानतीं। और यह भी जानकर तुम हैरान होओगे कि अगर तुम्हें कोई अशुभ कार्य करना हो, तो व्यक्ति से करवाना बहुत मुश्किल है, समूह से करवाना सदा आसान है।
एक अकेले हिंदू से मस्जिद में आग लगवानी बहुत मुश्किल है। हिंदुओं की भीड़ से लगवानी बहुत आसान है। एक अकेले मुसलमान से एक हिंदू बच्चे की छाती में छुरा घुसवाना बहुत कठिन है, लेकिन मुसलमान की भीड़ से बहुत आसान है। असल में जितनी बड़ी भीड़ होती है, आत्मा उतनी कम हो जाती है। क्योंकि आत्मा के होने का जो तत्व है वह व्यक्तिगत दायित्व है, “इंडिवीजुअल रिसपांसिबिलिटी’ है।
जब मैं तुम्हारी छाती में छुरा भोंकता हूं, तो मेरा अंतःकरण कहता है कि क्या कर रहे हो? लेकिन जब मैं सिर्फ एक भीड़ के साथ चलता हूं और आग लगती है, तो मैं सिर्फ भीड़ का एक हिस्सा होता हूं, मेरा अंतःकरण कभी भी नहीं कहता तुम क्या कर रहे हो? मैं कहता हूं, लोग कर रहे हैं। हिंदू कर रहे हैं, मैं तो सिर्फ साथ हूं। और कल मुझे कभी व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
अशुभ जो है वह सदा ही समूह को आकर्षित करना चाहता है। अशुभ जो है वह भीड़ पर निर्भर करता है। और अशुभ चाहता है कि व्यक्ति मिट जाए, भीड़ रह जाए। शुभ व्यक्ति को स्वीकार करता है और चाहता है भीड़ धीरे-धीरे खतम हो जाए, व्यक्ति रह जाएं। व्यक्ति रहेंगे तो संबंध रहेंगे, लेकिन वह भीड़ नहीं होगी, वह समाज होगा।
अब इसे भी थोड़ा समझ लेने जैसा है, जहां व्यक्ति हों, वहीं समाज हो सकता है। और जहां व्यक्ति की सत्ता कम हो जाए वहां सिर्फ भीड़ होती है, समाज नहीं होता। समाज और भीड़ में इतना ही फर्क है। व्यक्तियों के अंतर्संबंध का नाम समाज है, लेकिन व्यक्ति होने चाहिए। मैं स्वतंत्र रूप से तुमसे, स्वतंत्र व्यक्ति के साथ जब संबंधित होता हूं, तो समाज होता है।
एक जेलखाने में समाज नहीं होता, सिर्फ भीड़ होती है। कैदी भी संबंधित होते हैं, एक-दूसरे को देखकर हंसते भी हैं, एक-दूसरे को सिगरेट-बीड़ी भी भेज देते हैं, लेकिन भीड़ होती है, समाज नहीं होता। वे सब वहां इकट्ठे किए गए हैं। अपनी स्वतंत्रता का उनका चुनाव नहीं है।
इसलिए स्वतंत्रता, व्यक्ति, व्यक्तित्व, आत्मा, धर्म और अदृश्य और अज्ञात की संभावना जिस पक्ष की तरफ प्रबल होगी–प्रबल कह रहा हूं, क्योंकि निर्णायक नहीं होता बहुत कि इस पक्ष के तरफ है और इसकी तरफ बिलकुल नहीं है।
राम और रावण लड़ते हों, तो भी पक्का नहीं होता, बहुत साफ नहीं होता। क्योंकि रावण में भी थोड़ा राम तो होता है और राम में भी थोड़ा रावण तो होता ही है। कौरवों में भी थोड़ा पांडव तो होता है, पांडवों में भी थोड़ा कौरव होता ही है। ऐसा अच्छे से अच्छा आदमी नहीं है पृथ्वी पर जिसमें बुरा थोड़ा-सा न हो। और ऐसा बुरा आदमी भी नहीं खोजा जा सकता, जिसमें थोड़ा-सा अच्छा न हो।
इसलिए सवाल सदा अनुपात का और प्रबलता का है। स्वतंत्रता, व्यक्ति, आत्मा, धर्म, ये मूल्य हैं, जिनकी तरफ शुभ की चेतना साथ होगी।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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