मैं अपनी वासनाओं से हारा हूं ।
*तुम कहते हो , मैं अपनी वासनाओं से हारा हूं । वासनाओं की व्यर्थता का बोध होने पर भी वे जाती क्यों नहीं हैं ?*
वासनाओं की व्यर्थता का बोध तुम्हें हुआ है ? या कि सुन लिया है , या कि संत-महात्माओं ने जो बकवास छेड़ रखी है वही तुम्हारे - भीतर शूं-शूं कर रही है ?
जिस दिन वासनाओं की व्यर्थता का बोध तुम्हें होगा , उस दिन न जीत है न हार है । बोध के साथ ही वासनाओं का अतिक्रमण है ।
बोध के साथ तो व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है , फिर बचता क्या है ? बोध यानी बुद्धत्व । और वासनाओं का बोध ,
बस आ गई पूर्णिमा की रात , आ गई वह रात जब गौतम सिद्धार्थ
बुद्ध बने ! तुम्हारे जीवन में भी बुद्धत्वता का , भगवत्ता का आनंद
बरस उठेगा , अमृत झलक उठेगा ।
लेकिन बोध तुम्हें नहीं है । इसे बोध न कहो । सुनी-सुनाई बातें हैं ।
तुम्हारे भीतर घुस गई हैं , दोहर रही हैं , ग्रामोफोन रिकार्ड की तरह
दोहर रही हैं । सदियों से कहा जा रहा है , सुना जा रहा है कि -
वासनाएं गलत हैं , उनसे जीत करनी है , उनको हराना है ।
मेरे पास लोग आते हैं , वे कहते हैं वासनाओं को जीतना है ।
मैं उनसे कहता हूं , जीत हो सकती है अगर तुम यह जीत की भावना छोड़ दो । वे कहते हैं , अच्छी बात है । तो हम जीत की
भावना छोड़ देंगे , फिर तो जीत होगी न ?
यह कैसी भावना छोड़ना हुआ ? जीत की आकांक्षा ऐसी गहन हो गई है , इस बात तक के लिए बेचारे राजी हैं कि चलो जीत की आकांक्षा भी छोड़ देते हैं , मगर जीत होगी न ?
जीत होनी ही चाहिए । अगर जीत पक्की हो , अगर गारंटी हो , तो
हम यह भी कर लेंगे ---- यह वासना भी छोड़ देंगे कि वासना को
जीतना है । और मैं तुमसे कहूं , यह बडी़ से बडी़ वासना है ----
वासनाओं को जीतने की वासना । और वासनाएं तो बहुत छोटी-छोटी हैं ; यह वासना तो बडी़ महत वासना है ।
इस सब झंझट में न पडो़ । जो भी भीतर है , जो भी बाहर है ,
स्वीकार करो । निंदा नहीं ।
अभी बोध कहां ! बोध को ही जगाने का तो मैं उपाय कर रहा हूं ।
क्रमशः *बोध को जगाओ ।*
पहले शरीर के साक्षी बनो ।
*तुम जी रहे हो --- यंत्रवत ।*
*पहले शरीर के प्रति सजग होना शुरू करो*
चलो तो जानते हुए , होशपूर्वक । बैठो तो जानते हुए , होशपूर्वक ।
लेटो तो जानते हुए , होशपूर्वक । इतनी गहनता को लाना है होश में
कि एक ऐसी घडी़ भी आ जाए कि रात करवट भी बदलो , तो भी
होशपूर्वक । और अंततः सोए रहो तब भी तुम्हें यह होश रहे कि शरीर सोया है , मैं जागा हूं । जिस दिन यह घटना घट जाती है उस दिन एक पडा़व पूरा हुआ , एक तिहाई यात्रा पूरी हो गई ।
फिर दूसरा प्रयोग मन पर करना है ।
*फिर मन के विचार , कामनाएं ,* *इच्छाएं , एषणाएं स्मृतियां ,* *कल्पनाएं , सपने , इनको देखना है ।* यह मन की सारी कामनाओं का जाल तभी संभव है देखना , जब पहले शरीर की स्थूल प्रक्रियाओं पर तुम्हारी जागृति जम गई हो ।
तब सूक्ष्म पर उतरा जा सकता है । एक-एक कदम बढ़ना होगा ।
जो शरीर पर सफल हो गया वह मन पर भी सफल हो जाएगा ;
उसके हाथ में राज लग गया ।
और जब तुम्हारे मन पर तुम्हारा होश गहन हो जायेगा तो तुम चकित होओगे । जब शरीर पर होश गहन होता है तो शरीर में एक
कमनीयता , एक कोमलता , एक सौंदर्य , एक प्रसाद उतर आता है ;
एक संगीत , एक लयबध्दता , एक छंद छा जाता है ।
शरीर के उठने-बैठने में एक अदभुत लालित्य आ जाता है , सारी
भाव-भंगिमा में एक भगवत्ता छा जाती है ---- एक गहन शांति ,
एक मौन , एक उत्फुल्लता । रोएं-रोएं में एक उत्सव ! और जब मन पर बोध गहन हो जाता है तो वासनाएं , विचार अपने आप विदा हो
जाते हैं , *लड़ना नहीं पड़ता ।*
*जो लडा़ वह तो हारा । जो जागा वह जीता ।*
इस सूत्र को खूब याद कर लेना । जो लडा़ वह हारा ।
पराजय तुम्हारी गलत प्रक्रिया का परिणाम है ।
*जो मन को जाग कर देखेगा उसका मन विदा हो जाता है ।*
*तुम जागे कि मन गया । जिस मात्रा में जागे , उस मात्रा में मन गया*
तुम अगर दस प्रतिशत जागे हो तो नब्बे प्रतिशत मन होगा । तुम
अगर नब्बे प्रतिशत जाग गए तो दस प्रतिशत मन होगा । और
तुम अगर निन्यानबे प्रतिशत जाग गए तो एक प्रतिशत मन होगा ।
और तुम अगर सौ प्रतिशत जाग गए तो मन शून्य प्रतिशत हो जाएगा । और तब एक अपूर्व घटना घटती है ।
जैसे शरीर में एक प्रसाद छा जाता है , ऐसे ही मन में एक अपूर्व आह्वाद , अकारण आनंद --- कोई कारण नहीं , कोई वजह नहीं ,
कोई हेतु नहीं , कोई लक्ष्य नहीं --- बस अकारण झरने फूटने लगते हैं , आनंद की रसधार बहने लगती है ।
और जब मन में यह घटना घट जाए तो फिर तीसरा कदम बाकी रह
गया , जो सर्वाधिक सूक्ष्म है --- वह है *हृदय की भावनाओं के प्रति*
सजगता ।* वह सबसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म हमारा जगत है ।
भाव विचार से भी गहरे हैं । और भाव विचार से भी नाजुक हैं ।
फिर आखिरी प्रयोग करना है । अपनी भावनाओं को देखना है ।
विचार पर जो जीत गया वह भावनाओं पर भी जीत जाएगा ।
राज तो वही है , कीमिया तो वही है , कला तो वही है ; सिर्फ अब
गहराई बढा़ए जाना है । तैरना आ गया तो अब क्या फर्क पड़ता है
उथले में तैरे कि गहरे में तैरे । भावना का जगत सर्वाधिक गहरा है।
जब भावनाओं के प्रति तुम जागोगे , जिस मात्रा में जागोगे उस मात्रा में भावनाएं भी विदा हो जाएंगी ।
*और जब सारी भावनाएं विदा हो* *जाती हैं तो उस अपूर्व घटना की*
*घडी़ आ गई जब ऋषियों ने कहा है : रसो वै सः !*
रस आखिरी परिभाषा है परमात्मा की । रस बह उठता है ।
रस अदभुत शब्द है । दुनिया की किसी भाषा में वैसा कोई शब्द नहीं । परमात्मा रस रुप है ।
और ये तीन कदम हैं ; इन तीन कदम के बाद चौथा प्रसाद है ।
चौथा भी है , लेकिन वह तुम्हारा कदम नहीं है ।
तीन तुम उठाओ , चौथा कदम परमात्मा उठाता है ।
*उस चौथे को हमने कहा है ---- तुरीय , समाधि ।*
तुमने तीन पूरे कर लिए , तुम अधिकारी हो गए , पात्र हो गए चौथे को पाने के । चौथा तुम नहीं उठा सकते ।
चौथा तो परमात्मा उठाएगा । यह पूरा अस्तित्व तुम्हारे सहयोग में
खडा़ हो जाता है ।
और जब चौथा कदम भी उठ जाता है और समाधि सघन हो जाती है , समाधि के मेघ घिर जाते हैं , आ गया आषाढ़ का महीना ,
होने लगी रिमझिम ---- तब जीवन में जीत है ।
*उसको तुम कह सकते हो जिन* *अवस्था , विजेता की अवस्था ।*
*उसके पहले तो हार ही हार है ।*
*............ , लडो़ मत , जागो !*
" ओशो "
सांच सांच सो सांच
- Log in to post comments
- 2541 views