ओशो प्रवचन
और लाओत्सु समाधि को उपलब्ध हुआ
लाओत्सु के जीवन में उल्लेख है: कि वर्षों तक खोज में लगा रहकर भी सत्य की कोई झलक न पा सका। सब चेष्टाएं कीं, सब प्रयास, सब उपाय, सब निष्फल गये। थककर हारा-पराजित एक दिन बैठा है--पतझड़ के दिन हैं--वृक्ष के नीचे। अब न कहीं जाना है, न कुछ पाना है। हार पूरी हो गई। आशा भी नहीं बची है। आशा का कोई तंतुजाल नहीं है जिसके सहारे भविष्य को फैलाया जा सके। अतीत व्यर्थ हुआ, भविष्य भी व्यर्थ हो गया है, यही क्षण बस काफी है। इसके पार वासना के कोई पंख नहीं कि उड़े। संसार तो व्यर्थ हुआ ही, मोक्ष, सत्य, परमात्मा भी व्यर्थ हो गये हैं।
- Read more about और लाओत्सु समाधि को उपलब्ध हुआ
- Log in to post comments
- 855 views
प्रश्न: क्या सारी जिंदगी हारे ही हारे जीना होगा?
तुम पर निर्भर है। अगर जीत की बहुत आकांक्षा है तो हारे—हारे ही जीना होगा। अगर जीत की आकांक्षा छोड़ दो तो अभी जीत जाओ। फिर हार कैसी! हार का अर्थ ही होता है कि जीतने की बड़ी अदम्य वासना है। उसी वासना के कारण हार अनुभव में आती है। कभी खयाल किया, छोटा बच्चा अपने बाप से कुश्ती लड़ता है, बाप ऐसा थोड़ा दो—चार हाथ—पैर चलाकर जल्दी से लेट जाता है, छोटा बच्चा छाती पर बैठ जाता है और चिल्लाता है और प्रसन्नता से नाचता है कि गिराया, बाप को चारों खाने चित्त कर दिया। और बाप नीचे पड़ा प्रसन्न हो रहा है। चारों खाने चित्त होने में प्रसन्न हो रहा है, बात क्या है!
- Read more about प्रश्न: क्या सारी जिंदगी हारे ही हारे जीना होगा?
- Log in to post comments
- 944 views
अब उत्सव को टाला नहीं जा सकता... (एक सूफी कहानी)
अब उत्सव को टाला नहीं जा सकता...
(एक सूफी कहानी)
- Read more about अब उत्सव को टाला नहीं जा सकता... (एक सूफी कहानी)
- Log in to post comments
- 686 views
तुम अपने चारों तरफ जो कुछ देखते हो वह तुम्हारा प्रतिबिंब ज्यादा है, यथार्थ कम
तुम अपने चारों तरफ जो कुछ देखते हो वह तुम्हारा प्रतिबिंब ज्यादा है, यथार्थ कम। तुम अपने को ही सब जगह प्रतिबिंबित देख रहे हो। और जिस क्षण तुम बदलते हो, तुम्हारा प्रतिबिंब भी बदल जाता है। और जिस क्षण तुम समग्रत: मौन हो जाते हो, शांत हो जाते हो, सारा संसार भी शात हो जाता है। संसार बंधन नहीं है; बंधन केवल एक प्रतिबिंब है। संसार मोक्ष भी नहीं है, मोक्ष भी प्रतिबिंब है। बुद्ध को सारा संसार निर्वाण में दिखाई पड़ता है। कृष्ण को सारा जगत नाचता—गाता, आनंद में, उत्सव मनाता हुआ दिखाई पड़ता है। उन्हें कहीं कोई दुख नहीं दिखाई पड़ता है।
- Read more about तुम अपने चारों तरफ जो कुछ देखते हो वह तुम्हारा प्रतिबिंब ज्यादा है, यथार्थ कम
- Log in to post comments
- 572 views
योग का विश्वास शाश्वतता में है
मैंने एक व्यक्ति के बारे में सुना है, तुमने अपनी पिछली नौकरी क्यों छोड़ दी? मेरे बीस ने कहा कि मैं नौकरी से निकाल दिया गया हूं लेकिन मैंने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे तो ऐसा सदा कहते रहते थे। इसलिए अगले दिन मैं आफिस चला गया और देखा कि मेरा सारा सामान आफिस से हटा दिया गया। फिर मैं अगले दिन गया, तो मेरी नाम पट्टिका दरवाजे से हट चुकी थी, और अगले दिन मैंने अपनी कुर्सी पर किसी और को बैठे देखा। यह बहुत अधिक है! मैनें अपने आप से कहा, इसलिए मैंने त्यागपत्र दे दिया।
- Read more about योग का विश्वास शाश्वतता में है
- Log in to post comments
- 199 views
शुभ चेतना का साथ...
वह व्यक्ति को मूल्य नहीं देना चाहता जो सदा से ही अशुभ है, क्योंकि व्यक्ति ही विद्रोह का तत्व है। इसलिए अशुभ की शक्तियां समूह को मानती हैं, व्यक्ति को नहीं मानतीं। और यह भी जानकर तुम हैरान होओगे कि अगर तुम्हें कोई अशुभ कार्य करना हो, तो व्यक्ति से करवाना बहुत मुश्किल है, समूह से करवाना सदा आसान है।
- Read more about शुभ चेतना का साथ...
- Log in to post comments
- 257 views
अगर तुम सारे जगत को नाटक की तरह देख सको
अगर तुम सारे जगत को नाटक की तरह देख सको तो तुम अपनी मौलिक चेतना को पा लोगे। उस पर धूल जमा हो जाती है, क्योंकि तुम अति गंभीर हो। वह गंभीरता ही समस्या पैदा करती है। और हम इतने गंभीर हैं कि नाटक देखते हुए भी हम धूल जमा करते हैं। किसी सिनेमाघर में जाओ और दर्शकों को देखो। फिल्म को मत देखो, फिल्म को भूल जाओ; पर्दे की तरफ मत देखो, हाल में जो दर्शक हैं उन्हें देखो। कोई रो रहा होगा, कोई हंस रहा होगा, किसी की कामवासना उत्तेजित हो रही होगी। सिर्फ लोगों को देखो। वे क्या कर रहे हैं? उन्हें क्या हो रहा है?
- Read more about अगर तुम सारे जगत को नाटक की तरह देख सको
- Log in to post comments
- 628 views
क्या अपात्र सदगुरु की करुणा के हकदार नहीं हैं ?
हकदार शब्द ही गलत है। यह कोई अधिकार नहीं है जिसका तुम दावा करो। यह हकदार शब्द ही अपात्र के मन की दशा की सूचना दे रहा है। संन्यास का कोई हकदार नहीं होता। यह कोई कानूनी हक नहीं है कि इक्कीस साल के हो गए तो वोट देने का हक है। तुम जन्मों जन्मों जी लिए हो, फिर भी हो सकता है संन्यास के हकदार न होओ। यह हक अर्जित करना पड़ता है। यह हक हक कम है और कर्तव्य ज्यादा है। यह तो तुम्हें धीरे धीरे कमाना पड़ता है। यह कोई कानूनी नहीं है कि मैं चाहता हूं संन्यास लेना, तो मुझे संन्यास दिया जाए। यह तो प्रसादरूप मिलता है।
- Read more about क्या अपात्र सदगुरु की करुणा के हकदार नहीं हैं ?
- Log in to post comments
- 95 views
मैं अपनी वासनाओं से हारा हूं ।
*तुम कहते हो , मैं अपनी वासनाओं से हारा हूं । वासनाओं की व्यर्थता का बोध होने पर भी वे जाती क्यों नहीं हैं ?*
- Read more about मैं अपनी वासनाओं से हारा हूं ।
- Log in to post comments
- 2602 views
सभ्य आदमी ने कितना खो दिया है ,सभ्यता के नाम पर
बर्ट्रेंड रसेल पहली बार एक आदिवासी समाज में गया। पूरे चांद कीरात. और जब आदिवासी नाचने लगे और ढोल बजे और मंजीरे बजे तो रसेल के मन में उठा कि सभ्य आदमी ने कितना खो दिया है!सभ्यता के नाम पर हमारे पास है क्या?
- Read more about सभ्य आदमी ने कितना खो दिया है ,सभ्यता के नाम पर
- Log in to post comments
- 512 views