एक मित्र ने पूछा है, जो सत्य को जान लेते हैं, वे फिर बोलते ही नहीं और आप तो बोलते हैं?
एक मित्र ने पूछा है, जो सत्य को जान लेते हैं, वे फिर बोलते ही नहीं और आप तो बोलते हैं?
बड़ी मजेदार बात पूछी है। तब तो उनेक हिसाब से ही...और ये वही मित्र हैं, जिनने पहले प्रश्न पूछे हैं शास्त्रों के पक्ष में। तो ये शास्त्र किसने बोले होंगे? सत्य को जानने वाले बोलते नहीं हैं तो ये बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट जो बोलते हैं, ये तो सत्य को जानने वाले रहे नहीं? फिर सत्य को न बोलने वाले का पता कैसे लगा आपको और कहां से, क्योंकि वह कभी बोला नहीं? उसका पता आपको लग सकता नहीं। कैसे खबर मिली आपको? क्या किसी आदमी को गूंगा देखकर आप समझ लेंगे कि यह सत्य को उपलब्ध हो गया है? या किसी आदमी को चुपचाप बैठे देखकर समझ लेंगे कि यह सत्य को उपलब्ध हो गया है?
तब तो बड़ी आसान बात है। गूंगा होना भी कठिन नहीं, गूंगेपन को साधना भी कठिन नहीं। और दोत्तीन वर्ष चुप रह जाएं तो फिर बोल भी नहीं सकते, चाहें तो भी। क्योंकि दोत्तीन वर्ष में बोलने का यंत्र फिर खराब हो जाता है। तब तो बड़ी आसान बात है। मामला सिर्फ बोलने के यंत्र को खराब करने का है। तो फिर सत्य को उपलब्ध आप हो जाएंगे। इतना आसान नहीं था।
लेकिन हां, प्रश्न पूछने वाले मित्र जैसे सोचने वाले बहुत लोग हुए हैं। कई लोग सोचते हैं: आंख बंद कर लो, आंख फोड़ लो तो सत्य को उपलब्ध हो जाओगे! कोई सोचता है, मुंह बंद कर लो, वाणी बंद कर लो तो सत्य को उपलब्ध हो जाओगे! कोई सोचता है, कान बंद कर लो! जो और भी बहुत अग्रणी विचारक हैं, वे सोचते हैं, आत्मघात ही कर लो तो सत्य को उपलब्ध हो जाओगे! क्योंकि तब सभी इंद्रियां बंद हो जाएंगी। बोलना तो एक ही इंद्रिय है। आत्मघात करने से सभी इंद्रियां बंद हो जाती हैं। सो जल समाधि लेने वाले और मिट्टी में समाधि लेने वाले और मरने वालों का लंबा सिलसिला है! आत्महत्या करने वालों का! वे भी सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं?
बहुत अजीब बात है। सत्य को उपलब्ध होने से बोलने, न-बोलने का कोई भी संबंध नहीं है। सत्य को उपलब्ध हुए लोग नहीं बोले या बोले, इससे भी कोई संबंध नहीं है। एक बात तय है कि जिन्होंने भी सत्य को जाना, उन्हें बोलने में बड़ी कठिनाई हो गई। लेकिन उनकी दया और करुणा का यह कारण रहा होगा कि जिसे नहीं बोला जा सकता, उसे भी उनने बोलने की कोशिश की है, चेष्टा की है। जो नहीं कहा जा सकता, उस तरफ भी इशारे किए हैं। जिस तरफ आंखें नहीं उठाई जा सकतीं, उस सूरज की तरफ भी खबर की है। उनकी पीड़ा को हम नहीं समझ सकते। वे कितनी पीड़ा से गुजरते होंगे, यह कहना कठिन है। क्योंकि उनके सामने सबसे बड़ा पैराडाक्स, सबसे बड़ी विरोधाभासी चीज खड़ी हो जाती है। कुछ उन्होंने जाना है, और वह जाना हुआ लुट जाना चाहता है, बंट जाना चाहता है। लेकिन बांटने का कोई साधन हाथ में नहीं है। उसे कैसे बांटे, उसे कैसे लुटा दें?
बहुत अधूरे उपकरण हैं शब्दों के, भाषा के, उनका ही उपयोग करना पड़ता है। उनका उपयोग किया गया है। जो सत्य को जानता है, वह बोलता नहीं, फिजूल की बात है। लेकिन जो सत्य को जानता है, वह जानता है यह भी कि जो मैंने जाना है, वह बोला नहीं जा सकता है। लेकिन फिर भी बोलने का हजारों वर्ष से उपक्रम चलता है। कोई करुणा है सत्य के जानने के साथ ही--कोई प्रेम है, जो बंट जाना चाहता है। कोई चीज भीतर जन्मती है, वह बिखर जाना चाहती है, फैल जाना चाहती है। जैसे फूल खिलता है तो उसकी सुगंध हवाओं में लुट जाना चाहती है। दीया जलता है तो उसकी किरणें अंधेरे में दूर की यात्रा पर निकल जाती हैं। जब किसी प्राण में सत्य का दीया जलता है या सत्य का फूल खिलता है, तब सत्य की किरणें और सत्य की सुगंध भी अनेक-अनेक रूपों में बिखर जाना चाहती है, फैल जाना चाहती है।
जिस जीवन में भी सत्य आया हो, वह हजार-हजार रूपों में प्रगट होना चाहता है। शब्द भी, चित्र भी, रंग भी, काव्य भी न मालूम किन-किन रूपों में वह प्रगट होना चाहता है, बंट जाना चाहता है। जब भी आनंद उपलब्ध होता है तो वह बंटना चाहता है।
असंभव क्रांति
ओशो
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