मन ही समय है
मन या तो अतीत
होता है—या भविष्य। वर्तमान में मन की
कोई सत्ता नहीं। और मन
ही संसार है? इसलिये वर्तमान में संसार
की भी कोई सत्ता
नहीं। और मन ही समय
है; इसलिये वर्तमान में समय की
भी कोई सत्ता नहीं।
अतीत का वस्तुत: कोई अस्तित्व तो
नहीं है, सिर्फ स्मृतियां हैं। जैसे रेत
पर छूटे हुए पग—चिह्न। सांप तो जा चुका—धूल पर
पड़ी लकीर रह गई। ऐसे
ही चित्त पर, जो बीत गया
है, व्यतीत हो गया है
उसकी छाप रह जाती है।
उसी छाप में अधिकतर लोग जीते
हैं। जो नहीं है उसमें
जीयेंगे तो आनंद कैसे पायेंगे! प्यास तो है
वास्तविक और पानी पीयेंगे
स्मृतियों का! बुझेगी प्यास? धूप तो है
वास्तविक और छाता लगायेंगे कल्पनाओं का!
रुकेगी धूप उससे?
अतीत का कोई अस्तित्व
नहीं है। अतीत जा चुका, मिट
चुका—मगर हम जीते हैं
अतीत में। और इसलिये हमारा
जीवन व्यर्थ अर्थहीन, थोथा।
इसलिये जीते तो हैं मगर जी
नहीं पाते। जीते तो हैं मगर
घिसटते हैं—नृत्य नहीं,
संगीत नहीं, उत्सव
नहीं।
और अतीत रोज बड़ा होता चला
जाता है! चौबीस घन्टे फिर बीत
गये—अतीत और बडा हो गया।
चौबीस घन्टे और बीत गये
अतीत और बडा हो गया। जैसे—जैसे
अतीत बड़ा होता है, वैसे—वैसे हमारे
सिर पर बोझ बड़ा होता है। इसलिये छोटे बच्चों
की आंखों में जो निर्दोषता दिखाई
पड़ती है, जो संतत्व दिखाई पड़ता है
वह फिर बूढों की आंखों में खोजना मुश्किल
हो जाता है। हजार तरह के झूठ इकट्ठे हो
जाते हैं।
सारा अतीत ही झूठ
है!
सब पीछे लौटकर देखते
हैं! हम पीछे से ही
जीते हैं। हम हिसाब ही
लगाते रहते हैं—यह हुआ, वह हुआ।
काश, ऐसा 'हो जाता, काश वैसा हो जाता!
फिर इस अतीत के उपद्रव से
भविष्य का उपद्रव पैदा होता है।
सबसे बड़ी मुसीबत जो
अतीत लाता है, वह है भविष्य।
भविष्य तुम्हारे अतीत की
ही छाया है। वह तुमने जो
जीया है, उसमें से कुछ काट— छांटकर तुम
भविष्य की कल्पना करते हो। जो
प्रीतिकर नहीं था, उसे छांटते
हो। जो प्रीतिकर था, उसे फैलाते हो, बढ़ाते
हो, विस्तीर्ण करते हो।
भविष्य है क्या? भविष्य का तुम्हें पता तो
नहीं है। जिसका पता हो, वह
भविष्य नहीं। भविष्य तो अज्ञात है।
लेकिन अतीत ज्ञात है। ज्ञात से अशात
के संबंध में हम अनुमान लगाते हैं। और ज्ञात में से
ही चुनाव करते हैं। सुखद को चुनते हैं,
दुखद को छोड़ते हैं। ऐसे हम भविष्य के
रंगीन सपने संजोते हैं। कांटे—कांटे अलग
कर देते हैं; गुलाब—गुलाब बचा लेते हैं। हालांकि
यह हमारी भाति है, क्योंकि कांटे और
गुलाब साथ—साथ होते हैं। यह असंभव है कि
तुम जो—जो गलत था, उसे छोड़ दो और जो—जो
ठीक था, उसे बचा लो। गलत और
ठीक संयुक्त था, जुड़ा था। आयेगा, तो साथ
आयेगा। जायेगा तो साथ जायेगा। वे एक ही
सिक्के के दो पहलू हैं। तुम एक पहलू को बचा न
सकोगे।
तो एक तो अतीत का बोझ;
उसकी चट्टानें हमारी
छाती पर रखी हैं। और फिर
भविष्य का बोझ। अतीत का रोना, कि ऐसा क्यों
न हुआ। और फिर जल्दी
ही भविष्य के लिये रोओगे, क्योंकि वह
भी नहीं होनेवाला है। न
अतीत तुम्हारे मन के अनुकूल हुआ, न
भविष्य तुम्हारे मन के अनुकूल होगा। इन दो
पार्टी के बीच में
आदमी पिसता है। और दोनों का
ही कोई अस्तित्व नहीं
है।
अतीत वह जो जा चुका—अब
नहीं। और भविष्य वह, जो आया
नहीं—अभी
नहीं। दोनों के मध्य में छोटा सा बिंदु है
अस्तित्व का। बस, बूंद की भांति है। अगर
होश न रहा, तो चूक जाओगे।
यह सूत्र प्यारा है। यह संन्यास
की परिभाषा है।
'भविष्य नानुसन्धते—भविष्य का अनुसंधान न
करो।’
जो नहीं है, उसके
पीछे न दौड़ो। मगर साधारण आदमियों
की तो बात छोड़ दो, जिनको तुम असाधारण
कहते हो, जिनको तुम पूजते हो, वे भी
जो नहीं हैं उसके पीछे दौड़ते
हैं। राम भी स्वर्ण—मृगों के
पीछे दौड़ते हैं! औरों की तो बात
छोड़ दो। हाथ की सीता को गंवा
बैठते हैं! इसमें कसूर रावण का कम है। रावण को
नाहक दोष दिये जाते हो! अगर कहानी
को गौर से देखो, तो रावण का कसूर ना के बराबर है। अगर
कसूर है किसी का, तो राम का। स्वर्ण—मृग
के पीछे जा रहे हैं! बुद्ध से बुद्ध
आदमी को भी पता है कि मृग
स्वर्ण के नहीं होते।
साधारण से साधारण आदमी कहता
है कि सारा जग मृगमरीचिका है। देखते
हो मजा! साधारण आदमी भी
कहता है : जग मृगमरीचिका है। और
राम सोने के मृग के पीछे चल पड़े! और क्या
मृगमरीचिका होगी? इससे बड़ा
और क्या भ्रमजाल होगा?
: मेरा स्वर्णिम भारत--(प्रवचन--13)
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