स्वतंत्रता और परतंत्रता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं
विनोबा भावे, अगर तुम सामने उनके रुपए ले जाओ, तो आंख बंद कर लेते हैं। आंख बंद करने की क्या जरूरत? मुंह फेर लेते हैं; रुपए से ऐसा क्या भय है? रुपए में ऐसा क्या है? ऐसे भी लोग तुम जानते हो जिंदगी में जिनको रुपया देखकर एकदम लार टपकने लगती है।
जिसको रुपया देखकर लार टपकती है उसमें और जो रुपया देखकर आंख बंद करता है, इसमें कुछ भेद है? दोनों पर रुपया हावी है। दोनों को रुपया प्रभावित करता है। रुपए का बल दोनों के ऊपर है, दोनों से कुछ करवा लेता है। किसी की जीभ से, किसी की आंख से, मगर दोनों से कुछ करवा लेता है। इससे क्या फर्क पड़ता है? फिर आंख भी क्यों बंद कर रहे हो? शायद कहीं भय होगा, ज्यादा देर देखा तो लार न टपकने लगे। नहीं तो आंख बंद करने की क्या जरूरत है?
एक सुंदर स्त्री पास से तुम्हारे गुजरती है, तुम झट से नीचा सिर कर लेते हो। क्या तुम सोचते हो यह ब्रह्मचर्य है? अगर यह ब्रह्मचर्य है, तो आंख नीची क्यों हो गई? चट्टान को देखकर तो तुम ऐसी आंख नीची नहीं करते, वृक्ष को देखकर तो आंख नीची नहीं करते, सुंदर स्त्री को देखकर ही आंख नीची क्यों हो गई?
तुम जब किसी सुंदर स्त्री को देखकर सिर झुका लेते हो या दूसरी तरफ देखने लगते हो, यह तुम्हारा सिर झुकाना और दूसरी तरफ देखना, सिर्फ तुम्हारे भीतर जलती हुई वासना की खबर देता है और कुछ भी नहीं सिर्फ प्रज्वलित वासना की। तो जो आदमी संसार छोड़कर भागता है, सिर्फ इतनी ही खबर देता है कि संसार में उसे बड़ी आसक्ति है; उसको हम विरक्त कहते हैं। जो आदमी स्त्री बच्चों को छोड़कर चला जाता है, उसको हम ब्रह्मचारी कहते हैं। छोड़कर जाने की जरूरत क्या थी? छोड़कर जाने का अर्थ है कि डर है, भय है।
मैं तुम्हें यह याद दिलाना चाहता हूं: स्वतंत्रता और परतंत्रता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, विरक्ति आसक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भोगऱ्योग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब बोध होता है तो पूरा सिक्का गिर जाता है। एक पहलू तो कोई गिरा भी नहीं सकता; या कि तुम सोचते हो गिरा सकोगे? सिक्के का एक पहलू नहीं गिराया जा सकता। या तो पूरा सिक्का रखना होगा हाथ में, या पूरा छोड़ देना होगा, तुम बचा नहीं सकते आधा। तुम यह नहीं कह सकते कि हम एक तरफ का बचा लेंगे। एक तरफ का बचाओगे, तो दूसरी तरफ का भी बच जाएगा। हां, यह हो सकता है कि एक पहलू ऊपर रहे और दूसरा पहलू नीचे छिपा रहे, दिखाई न पड़े।
त्यागी में भोग छिपा रहता है, दिखाई नहीं पड़ता। भोगी में त्याग छिपा रहता है, दिखाई नहीं पड़ता। मैं तुम्हें एक बड़ी क्रांति की दृष्टि दे रहा हूं यह पूरा सिक्का ही व्यर्थ है। न तो परमात्मा ऊंचा है, न तुम नीचे हो। ऊंच नीच की बात ही व्यर्थ है। मैं तुम्हें कोई गौरीशंकर के शिखर नहीं दिखा रहा हूं।
कहै वाजिद पुकार
ओशो
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