मनुष्य एक नहीं है, बहुत सी पर्त है।
मनुष्य की अशांति, मनुष्य के मन के भीतर निरंतर का द्वंद्व, तनाव, मनुष्य की बेचैनी और विक्षिप्तता, एक ही बात से जन्म पाती है। और वह है मनुष्यों के व्यक्तित्वों में बहुत सी पर्तो का होना।
मनुष्य एक नहीं है, बहुत सी पर्त है।
शरीर है; शरीर की एक पर्त है। और शरीर की पर्त की अपनी वासनाएं है, अपनी इच्छाएं है। शरीर का अपना आकर्षण है। अपनेमोह, अपने लोभ, अपनी कामनाएं है।
फिर शरीर के भीतर मन की पर्तें हैं। मन की अपनी वासनाएं हैं। अपनी आकांक्षा ए हैं। और मन के भी भीतर बुद्धि है, विवेक है। उस विवेक की कामना बिलकुल भिन्न है। और इन तीनों पर्तों की वासनाओं में आपस में बड़ा विरोध है।
शरीर कहता है कुछ करो। मन कहता है कुछ और करो। विवेक सुझाता है कुछ और। और तब मनुष्य के भीतर एक भीड़ हो जाती है, संघर्ष की; एक उपद्रव, एक अराजकता हो जाती है।
अगर मनुष्य केवल शरीर होता तो कोई अशांति न होती। अगर मनुष्य अकेला मन होता तो भी कोई अशांति न होती। अगर मनुष्य केवल आत्मा होता तो भी कोई अशांति न होती। इसलिए पशु मनुष्य से कम अशांत हैं। क्योंकि पशुओं के पास शरीर ही है। मन की शोड़ी—सी झलक है, और जितनी झलक है उतनी अशांति वहा भी है। पौधे और भी शांत हैं। वृक्ष और भी शांत हैं। कोई चिंता नहीं, कोई तनाव नहीं। मन की वहा हलकी—सी झलक भी नहीं।
मनुष्यों में भी जितना विचारशील व्यक्ति होगा, उतना अशांत हो जाएगा। जितना बुद्धिहीन व्यक्ति होगा, उतना कम अशांत होगा।
इसलिए जैसे —जैसे शिक्षा बढ़ती है, विचार की क्षमता बढ़ती है, बुद्धि तीव्र होती है, वैसे—वैसे अशांति बढ़ती है। अमरिका में पागलों की संख्या सर्वाधिक है। उससे आप प्रसन्न मत होना; उससे आप यह मत सोचना कि हम बड़े सौभाग्यशाली हैं। उसका कुल अर्थ इतना है कि अमेरिका आज बुद्धि के जगत में सर्वाधिक विकसित है। संपन्न घरों में तनाव और चिंता ज्यादा होगी। होना उलटा चाहिए। विपन्न, दीन—हीन, दरिद्र घरों में उतनी अशांति नहीं है। संपन्न घरों में अशांति है, क्योंकि संपन्नता के साथ बुद्धि भी बढ़ती है। बुद्धि के बढ़ने के साथ संपन्नता बढ़ती है। जितना विपन्न आदमी है, उतना बुद्धि का भी विकास नहीं है। अन्यथा वह भी संपन्न हो गया होता। विपन्न आदमी दुखी, दीन है; अशांत नहीं है।
अर्थ यह हुआ कि हमारे भीतर जितनी पर्तें होंगी ज्यादा, उतना संघर्ष होगा।
अकेला शरीर में कोई जी सके, तो विक्षिप्त होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन अकेले शरीर में आप जी नहीं सकते, मन पीछे खड़ा है। शरीर कुछ कहता है, मन कुछ कहता है। आप भोजन कर रहे हैं। शरीर कहता है, पेट भर गया। मन कहता है, स्वादिष्ट है, थोड़ा और लिया जा सकता है। बुद्धि कहती है, नासमझी कर रहे हो, क्योंकि यह रुग्णता का कारण होगा, बीमारी बढ़ेगी। तीन पर्तें हो गईं, कलह भीतर शुरू हो गई।
शरीर कोई नीति-नियम नहीं मानता। शरीर तो ठीक पशु जैसा है। लेकिन मन बड़े द्वंद्व में होता है। मन के पास भी पशुओं जैसी वासना है, लेकिन मन के पास मनुष्य के संस्कार भी हैं। समाज का दिया हुआ ज्ञान भी है, अंतःकरण भी है। भूख लगी है। शरीर तो कहेगा, चोरी कर लो, कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि शरीर के तल पर कोई हर्ज होता भी नहीं। लेकिन मन बेचैनी अनुभव करेगा।
अहंकार कहेगा कि अगर चोरी करते पकड़ लिए गए बदनामी होगी। मन यह कहेगा कि अगर चोरी ही करनी है, तो इस ढंग से करो कि पकड़े न जाओ। लेकिन भीतर बुद्धि है-और भी गहरे में -वह कहेगी, इससे कोई संबंध नहीं कि तुम पकड़े गए या नहीं पकड़े गए। चोरी की, कि गलत हुआ। और बुद्धि को काटा सालता रहेगा। न भी पकड़े गए तो भी बुद्धि पीड़ा पाएगी कि बुरा हुआ।
मनुष्य की अशाति है उसके बहुत पर्तों में बंटे होने के कारण। इस बात को ठीक से समझ लें तो दूसरी बात समझने में आसान हो जाएगी। वह दूसरी बात यह है कि जिस तल पर उपद्रव होता है, उसी तल पर आप उसी तल की शक्ति से उस उपद्रव को शात नहीं कर सकते। उससे ऊंचे तल पर, उससे बड़ी शक्ति के द्वारा उपद्रव शात हो सकता है।
अगर शरीर के तल पर कठिनाई है, तो शरीर ही उसे हल करने में समर्थ नहीं है, उसे मन हल कर सकता है। और अगर मन के तल पर कठिनाई है, तो मन ही उसे हल करने में समर्थ नहीं है, उसे बुद्धि हल कर सकती है। और अगर बुद्धि के तल पर कोई कठिनाई है, तो बुद्धि उसे हल करने में समर्थ नहीं है, उसके लिए तो आत्मा के निकट ही पहुंचना पड़े। और अगर आत्मा के तल पर कोई कठिनाई है, तो सिवाय परमात्मा के तल पर पहुंचे उसका कोई हल नहीं है।
इसका मतलब यह हुआ कि जहां कठिनाई है, उससे ऊंचे तल पर उसका हल खोजना होगा।
हम अक्सर उसी तल पर हल खोजते हैं, इससे कठिनाई बढ़ती है, घटती नहीं। समझें। शरीर में वासना उठती है, आखें रूप की तलाश करती हैं। ऐसे कुछ संतों की कथाएं हैं, कि उन्होंने आखें निकालकर फेंक दीं, क्योंकि आख रूप को खोजती है। शरीर रूप की खोज कर रहा है। लेकिन आख को निकालकर फेंक देना उसी तल पर है, तल के ऊपर उठना नहीं है।
ओशो
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