ध्यान की विधि कैसे चुने!
हमेशा उस विधि से शुरू करें जो रुचिकर लगे। ध्यान को जबरदस्ती थोपना नहीं चाहिए। अगर जबरदस्ती ध्यान को थोपा गया तो शुरुआत ही गलत हो जाएगी। जबरदस्ती की गई कोई भी चीज सहज नहीं हो सकती। अनावश्यक कठिनाई पैदा करने की कोई जरूरत नहीं है। यह बात अच्छे से समझ लेनी है। क्योंकि जिस दिशा में मन की सहज रुचि हो, उस दिशा में ध्यान सहजता से घटता है।
जो लोग शरीर के तल पर ज्यादा संवेदनशील हैं, उनके लिए ऐसी विधि है, जो शरीर के माध्यम से ही आत्यंतिक अनुभव पर पहुंचा सकती हैं। जो भाव-प्रवण हैं, भावुक प्रकृति के हैं, वे भक्ति-प्रार्थना मार्ग पर चल सकते हैं। जो बुद्धि-प्रवण हैं, बुद्धिजीवी हैं, उनके लिये ध्यान, सजगता, साक्षीभाव उपयोगी हो सकते हैं।
लेकिन मेरी ध्यान की विधियां एक प्रकार से अलग हट कर हैं। मैंने ऐसी ध्यान-विधियों की संरचना की है, जो तीनों प्रकार के लोगों द्वारा उपयोग में लाई जा सकती हैं। उनमें शरीर का पूरा उपयोग है, भाव का भी पूरा उपयोग है और होश का भी पूरा उपयोग है। तीनों का एक साथ उपयोग है और वे अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग ढंग से काम करती हैं। शरीर, हृदय, मन- मेरी सभी विधियां इसी श्रंखला में काम करती हैं। वे शरीर पर शुरू होती हैं, वे हृदय से गुजरती हैं, वे मन पर पहुंचती हैं और फिर वे मनातीत में अतिक्रमण कर जाती हैं।
स्मरण रहे, जो हमें रुचिकर लगता है, उसी में हम गहरे जा सकते हैं- केवल उसी में गहरे जा सकते हैं। रुचिकर लगने का मतलब ही यह है कि उसका हमसे तालमेल है। हमारा छंद उसकी लय से मेल खाता है। विधि के साथ हम एक हार्मनी में हैं। तो जब कोई विधि रुचिकर लगे, तो फिर और-और विधियों के लोभ में न पड़े, फिर उसी विधि में और-और गहरे उतरें। उस विधि को प्रतिदिन या अगर संभव हो तो दिन में दो बार अवश्य करें। जितना हम इसे करेंगे, उतना आनंद बढ़ता जाएगा। किसी भी विधि को तभी छोड़े जब आनंद आना बंद बंद हो जाए। उसका मतलब है कि विधि का काम पूरा हो गया, अब दूसरी विधि की तलाश की जाए। कोई भी अकेली विधि हमें अंत तक नहीं ले जा सकती। इस यात्रा पर हमें कई बार ट्रेन बदलनी पड़ेगी। हर विधि हमें एक अमुक अवस्था तक पहुंचाएगी। उसके बाद उसका कोई उपयोग नहीं है। उसका काम पूरा हो गया।
दो बातें स्मरण रखनी हैं : जब किसी विधि में आनंद आए तो उसमें जितने गहरे जा सके जाएं। लेकिन उसके आदी न हो जाएं, क्योंकि एक दिन उसके पार भी जाना है। अगर हम उसके बहुत आदी हो जाते हैं, तो यह भी एक प्रकार का नशा है, फिर हम उसे छोड़ नहीं सकते। अब उसमें कोई आनंद भी नहीं आता-इससे कुछ मिलता भी नहीं-लेकिन यह एक आदत हो गयी। फिर चाहे तो इसे हम करते रह सकते हैं, लेकिन हम गोल-गोल घूमते है, यह उसके आगे नहीं ले जा सकती।
तो आनंद मापदंड है। जब तक आनंद आए, जारी रखें। आनंद का कण भी पीछे न छूट जाए। उसका पूरा रस निचोड़ लें, एक बूंद भी बाकी न बचे। और फिर उसे छोड़ने की भी तैयारी रखें। फिर कोई दूसरी विधि चुन लें, जिसमें फिर आनंद आता हो। हो सकता है, हमें कई बार विधि बदलनी पड़े। यह अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग होगा, लेकिन ऐसी बहुत कम संभावना है कि एक विधि से पूरी यात्रा हो जाए।
लेकिन बहुत सी विधियां एक साथ करने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि हम उलझन में पड़ सकते हैं, विपरीत प्रक्रियाएं एक साथ कर सकते हैं और तब तकलीफ होगी, दर्द होगा।
तो कोई भी दो ध्यान की विधियां चुन लें और फिर उन्हें सतत करें। असल में, मैं तो चाहूंगा कि कोई एक ध्यान ही चुनें, यह सबसे अच्छा होगा। जो ध्यान हमें भाए, उसे दिन में कई बार करना ज्यादा बेहतर है। इससे उसमें गहराई आती है।
अगर हम कई ध्यान एक साथ करते हैं- एक दिन एक, दूसरे दिन दूसरा। और हम अपने ही ध्यान गढ़ लेते हैं- तो ऊहापोह बढ़ेगा। विज्ञान भैरव तंत्र में ध्यान की एक सौ बारह विधियां हैं। हम पागल हो जा सकते हैं। हम वैसे ही पागल हैं!
ध्यान की ये विधियां कोई मनोरंजन नहीं हैं। ये कभी-कभी खतरनाक भी हो सकती हैं। हम मन के सूक्ष्म, अति सूक्ष्म यंत्र के साथ खेल रहे हैं। कभी एक छोटी सी चीज, जिसका हमें होश भी नहीं कि हम क्या कर रहे हैं, खतरनाक सिद्ध हो सकती है। इसलिए इन विधियों में कोई हेरफेर न करें और अलग-अलग विधियों को मिलाकर अपनी ही कोई खिचड़ी विधि न ईजाद करें। कोई भी दो विधियां चुन लें और कुछ सप्ताह उनका प्रयोग करके देखें।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
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