धर्म और नीति का यही भेद है।
संतत्व. की उपनिषद की धारणा बड़ी गहन है। शुद्धता की उपनिषद की धारणा बड़ी सूक्ष्म है। मन में जब तक कोई भी तरंग उठती है, तब तक मन अशुद्ध है। जब मन निस्तरंग हो जाता है, शून्य की भांति हो जाता है, दर्पण प्रतिबिंबों से खाली हो जाता है। न बुरा करने की वासना रह जाती है, न भला करने की वासना रह जाती है, न पाप मन को घेरता है, न पुण्य मन को घेरता है, न स्वार्थ मन को घेरता है, न परार्थ मन को घेरता है, जब मन को कुछ घेरता ही नहीं, तब मन असीम हो जाता है। तब मन की होने की क्षमता मात्र शेष रह जाती है। तब मनन करने को कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ कोरा दर्पण होता है, जस्ट मिरर। मन जब कोरा दर्पण रह जाता है, जिसमें कोई प्रतिबिंब,कोई प्रतिमा, कोई चित्र, कोई छबि, कोई छाया नहीं पड़ती—उपनषिद कहते हैं—ऐसे मन से ही कोई परमेश्वर को जानने में समर्थ होता है।
धर्म और नीति का यही भेद है। नीति शुभ मन को शुद्ध समझती है, और धर्म शून्य मन को शुद्ध समझता है। नैतिक होने के लिए धार्मिक होना जरूरी नहीं है। नास्तिक भी नैतिक हो सकता है, होता है। अक्सर तो यह होता है,आस्तिक से ज्यादा नैतिक होता है। रूस में जितनी नैतिकता है उतनी भारत में नहीं। और रूस नास्तिक है! इतनी चोरी वहां नहीं है,। इतनी बेईमानी वहां नहीं है। वस्तुओं में इतनी मिलावट वहां नहीं है। इतनी धोखाधड़ी, इतना ओछापन नहीं। नास्तिक नैतिक हो सकता है। सच तो यह है कि नास्तिक को नैतिक होने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है,क्योंकि धार्मिक तो वह हो नहीं सकता। नास्तिक के लिए बुरे का छोड़ना और चले का पकड़ना, यह अंतिम बात है।
आस्तिक इतने से राजी नहीं है। आस्तिक की यात्रा और लंबी है। आस्तिक कहता है—बुरे को छोड़ दिया, भले को पकड़ लिया, लेकिन पकड़ तो न छूटी। कल बुरा था हाथ में, अब भला है हाथ में। कल जंजीरें लोहे की थीं, अब सोने की हैं, लेकिन जंजीरें मौजूद हैं। कुछ भी बांधे नहीं, कुछ भी पकड़े नहीं, कोई पकड़ न रह जाए मन बिलकुल पकड़ से शून्य हो जाए।
धर्म अनीति के तो पार जाता ही है, नीति के भी पार जाता है। धार्मिक व्यक्ति का आचरण सिर्फ नैतिक नहीं होता। धार्मिक व्यक्ति का आचरण वस्तुत: नीति—अनीति शून्य हो जाता है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति के आचरण को समझना बहुत कठिन है।
नैतिक व्यक्ति का आचरण हमें समझ में आता है। हमें पता है, क्या बुरा है और क्या भला है। जो भला करता है, वह हमें समझ में आता है। जो बुरा करता है, वह भी समझ में आता है। लेकिन संत भले और बुरे करने के दोनों के पार हो जाता है। उसका आचरण स्पाटेनियस, सहज हो जाता है। उसके भीतर से जो उठता है वह करता है। न वह भले का चिंतन करता है, न बुरे का चिंतन करता है।
तो कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम भला कहते थे, वह संत न करे। कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जो समाज की धारणा में बुरा था, वह संत करे। जैसे जीसस, या कबीर, या बुद्ध, या महावीर समाज की धारणाओं से बहुत अतिक्रमण कर जाते हैं।
ओशो
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