सक्रिय ध्यान क्यों?
सभी ओशो सक्रिय ध्यान विधियों की शुरुआत किसी क्रिया से होती है जो प्रायः सघन व शारीरिक होती है, जिसके पश्चात कुछ समय का मौन होता है। सभी विधियां संगीत के साथ की जाती हैं जो किसी साधक को ध्यान के विभिन्न चरणों में सहयोग देने के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया है। दिन के अलग-अलग समय के लिए अलग-अलग विधियों का परामर्श दिया गया है।
सक्रिय ध्यान क्यों?
यदि तुम बैठ सको, तो किसी ध्यान की जरूरत नहीं है। जापान में, ध्यान के लिए उनका शब्द हैः झाझेन। झाझेन का अर्थ है: बिना कुछ किये बस बैठे भर रहना। यदि तुम बिना कुछ किए बैठ सको, तो वह परम ध्यान है। किसी और चीज की जरूरत नहीं है। लेकिन क्या तुम बैठ सकते हो? यही पूरी समस्या का सार है। क्या तुम बैठ सकते हो? क्या तुम बिना कुछ किये, बस बैठ भर रह सकते हो? यदि यह संभव हो--बस बैठो, कुछ न करो--और सब कुछ अपने आप ठहर जाता है, सब कुछ अपने आप बहने लगता है। कुछ भी करने के लिए के लिए तुम्हारी जरूरत नहीं है। लेकिन मुश्किल यह है--क्या तुम बैठ सकते हो?
लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं कि मैं सक्रिय ध्यान क्यों सिखाता हूं--क्योंकि अक्रिया को पाने का यही एक उपाय है। चरम सीमा तक नाचो, उन्मत्त होकर नाचो, पागल होकर नाचो, और यदि तुम्हारी सारी ऊर्जा इसमें संलग्न हो तो एक क्षण आता है जब तुम अचानक देखते हो कि नृत्य अपने आप से हो रहा है--उसमें कोई प्रयास नहीं है। यह बिना कृत्य की क्रिया है।
तुम निष्क्रियता में तभी उतर सकते हो जब सब कचरा बाहर फेंक दिया गया हो। क्रोध बाहर फेंक दिया गया हो, लोभ बाहर फेंक दिया गया हो...इन चीजों की तहों पर तहें जमीं हुई हैं। लेकिन एक बार तुम यह सब बाहर फेंक देते हो, तो तुम आसानी से भीतर उतर सकते हो। फिर कोई रुकावट नहीं है। और फिर अचानक तुम स्वयं को बुद्ध-लोक के प्रकाश में पाते हो। और अचानक तुम एक अलग ही जगत में होते हो--वह जगत जो कमल नियम का है, जो धर्म का है, जो ताओ का है।
जागरण की शक्तिशाली विधियां
ये वास्तव में ध्यान नहीं हैं। तुम बस लय बिठा रहे हो। यह ऐसे ही है...यदि तुमने भारत के शास्त्रीय संगीतज्ञों को वाद्य छेड़ते देखा हो...आधे घंटे तक, और कई बार तो उससे भी अधिक, वे अपने वाद्य बिठाने में लगे रहते हैं। कभी वे कुछ जोड़ों को बदलेंगे, कभी तारों को कसेंगे या ढीला करेंगे, और तबला वादक अपने तबले को जांचता रहेगा--कि वह बिलकुल ठीक है या नहीं। आधे घंटे तक वे यही सब करते रहते हैं। यह संगीत नहीं है, बस तैयारी है।
कुंडलिनी विधि वास्तव में ध्यान नहीं है। यह तो तैयारी मात्र है। तुम अपना वाद्य बिठा रहे हो। जब वह तैयार हो जाए, तो फिर तुम मौन में थिर हो जाओ, फिर ध्यान शुरू होता है। फिर तुम पूर्णतया वहीं होते हो। उछल-कूद कर, नाचकर, श्वास-प्रश्वास से, चिल्लाने से तुमने स्वयं को जगा लिया--ये सब युक्तियां हैं कि जितने तुम साधारणतया सजग हो उससे थोड़े और ज्यादा सजग हो जाओ। एक बार तुम सजग हो जाओ, तो फिर प्रतीक्षा शुरू होती है। प्रतीक्षा करना ही ध्यान है--पूरे होश के साथ प्रतीक्षा करना। और फिर वह आता है, तुम पर अवतरित होता है, तुम्हें घेर लेता है, तुम्हारे चारों ओर उसकी क्रीड़ा चलती, उसका नृत्य चलता; वह तुम्हें स्वच्छ कर देता है, परिशुद्ध कर देता है, रूपांतरित कर देता है।
-ओशो
ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति
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