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अनंत की पुकार

अनंत की पुकार : संगठन कभी बहुत व्यापक नहीं हो सकता, मित्रों का समूह बहुत व्यापक हो सकता है। क्योंकि उसमें विभिन्नता के लिए स्वीकृति है, उसमें जोर-जबर्दस्ती नहीं है बांधने की किसी को। उसमें सबके लिए मुक्ति है, कोई बंधा हुआ नहीं है। और जहां भी ऐसा मालूम होने लगता है कि हम बंधे हैं, वहीं श्रेष्ठ आदमी को कठिनाई शुरू हो जाती है। कोई श्रेष्ठ चेतना बंधना नहीं चाहती है। छोटे लोग ही सिर्फ बंधना चाहते हैं। जिनके भीतर एकदम क्षुद्र ही क्षुद्र है वे ही बंधने में रस लेते हैं, नहीं तो कोई बंधना नहीं चाहता। ओशो

ओशो के अमृत-संदेश का स्वाद जिसने भी लिया है, उसके हृदय में एक अभीप्सा जरूर उठती है—इस आनंद को बांटने की, इस आनंद में अपने मित्रों, परिजनों, परिचितों को भी साझीदार, भागीदार करने की। इस अभीप्सा के साथ ही न जाने कितने लोग अपने-अपने अनूठे ढंग से ओशो के कार्य के प्रचार-प्रसार में संलग्न रहे हैं। इस संबंध में अपनी अंतर्दृष्टि देते हुए ओशो कहते हैं : ‘आदमी का जीवन एक स्वर्ग की शांति का और संगीत का जीवन बन सकता है। और जब से मुझे ऐसा लगना शुरू हुआ, तो ऐसा प्रतीत हुआ कि जो बात मनुष्य के जीवन को शांति की दिशा में ले जा सकती है, अगर उसे हम उन लोगों तक नहीं पहुंचा देते जिन्हें उसकी जरूरत है, तो हम एक तरह के अपराधी हैं, हम भी जाने-अनजाने कोई पाप कर रहे हैं। मुझे लगने लगा कि अधिकतम लोगों तक, कोई बात उनके जीवन को बदल सकती हो, तो उसे पहुंचा देना जरूरी है।’


पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:

  • कार्य और ध्यान
  • संगठन और धर्म
  • कार्यकर्ता की भूमिका
  • जीवन एक सामूहिक उपक्रम है
  • ध्यान-केंद्र की भूमिका

सामग्री तालिका

अध्याय शीर्षक

    #1: ध्यान-केंद्र की भूमिका

    #2: अवधिगत संन्यास

    #3: एक एक कदम

    #4: कार्यकर्ता की विशेष तैयारी

    #5: ‘मैं’ की छाया है दुख

    #6: संगठन और धर्म

    #7: ध्यान-केंद्र के बहुआयाम

    #8: रस और आनंद से जीने की कला

    #9: धर्म की एक सामूहिक दृष्टि

    #10: कार्यकर्ता का व्यक्तित्व

    #11: ध्यान-केंद्र: मनुष्य का मंगल

    #12: काम के नये आयाम

    #13: संगठन: अनूठा और क्रांतिकारी

    #14: तरल संगठन

विवरण

ओशो के कार्य के प्रचार-प्रसार में संलग्न कार्यकर्ताओं के साथ ओशो की लोनावला, नारगोल, माथेरान एवं मुंबई में हुई बारह अंतरंग चर्चाओं का अप्रतिम संकलन।


उद्धरण : अनंत की पुकार - पहला प्रवचन - ध्यान-केंद्र की भूमिका


पूरी पृथ्वी को छोड़ भी दें तो इस देश में भी एक आध्यात्मिक संकट की, एक स्प्रिचुअल क्राइसिस की स्थिति है। पुराने सारे मूल्य खंडित हो गए हैं। पुराने सारे मूल्यों का आदर और सम्मान विलीन हो गया है। नये किसी मूल्य की कोई स्थापना नहीं हो सकी है। आदमी बिलकुल ऐसे खड़ा है जैसे उसे पता ही न हो--वह कहां जाए और क्या करे? ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि मनुष्य का मन बहुत अशांत, बहुत पीड़ित, बहुत दुखी हो जाए। एक-एक आदमी के पास इतना दुख है कि काश हम उसे खोल कर देख सकें उसके हृदय को, तो हम घबड़ा जाएंगे। जितने लोगों से मेरा संपर्क बढ़ा उतना ही मैं हैरान हुआ! आदमी जैसा ऊपर से दिखाई पड़ता है, उससे ठीक उलटा उसके भीतर है। उसकी मुस्कुराहटें झूठी हैं, उसकी खुशी झूठी है, उसके मनोरंजन झूठे हैं; और उसके भीतर बहुत गहरा नरक, बहुत अंधेरा, बहुत दुख और पीड़ा भरी है। इस पीड़ा को, इस दुख को मिटाने के रास्ते हैं; इससे मुक्त हुआ जा सकता है।

आदमी का जीवन एक स्वर्ग की शांति का और संगीत का जीवन बन सकता है। और जब से मुझे ऐसा लगना शुरू हुआ, तो ऐसा प्रतीत हुआ कि जो बात मनुष्य के जीवन को शांति की दिशा में ले जा सकती है, अगर उसे हम उन लोगों तक नहीं पहुंचा देते जिन्हें उसकी जरूरत है, तो हम एक तरह के अपराधी हैं, हम भी जाने-अनजाने कोई पाप कर रहे हैं। मुझे लगने लगा कि अधिकतम लोगों तक, कोई बात उनके जीवन को बदल सकती हो, तो उसे पहुंचा देना जरूरी है। लेकिन मेरी सीमाएं हैं, मेरी सामर्थ्य है, मेरी शक्ति है, उसके बाहर वह नहीं किया जा सकता। मैं अकेला जितना दौड़ सकता हूं, जितने लोगों तक पहुंच सकता हूं, वे चाहे कितने ही अधिक हों, फिर भी इस वृहत जीवन और समाज को और इसके गहरे दुखों को देखते हुए उनका कोई भी परिमाण नहीं है। एक समुद्र के किनारे हम छोटा-मोटा रंग घोल दें, कोई एकाध छोटी-मोटी लहर रंगीन हो जाए, इससे समुद्र के जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ सकता है। और बड़ा मजा यह है कि वह एक छोटी सी जो लहर थोड़ी सी रंगीन भी हो जाएगी, वह भी उस बड़े समुद्र में थोड़ी देर में खो जाने को है, उसका रंग भी खो जाने को है। —ओशो

अधिक जानकारी
Publisher OSHO Media International
ISBN-13 978-81-7261-151-4
Number of Pages 232
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