Skip to main content

मरौ हे जोगी मरौ

मरौ हे जोगी मरौ : न जाने समझोगे या नहीं: मृत्यु बन सकती है द्वार अमृत का
 

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं,
मरौ वे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरष मरि दीठा।।

गोरख कहते हैं: मैंने मर कर उसे देखा, तुम भी मर जाओ, तुम भी मिट जाओ। सीख लो मरने की यह कला। मिटोगे तो उसे पा सकोगे। जो मिटता है, वही पाता है। इससे कम में जिसने सौदा करना चाहा, वह सिर्फ अपने को धोखा दे रहा है। ऐसी एक अपूर्व यात्रा आज हम शुरू करते हैं। गोरख की वाणी मनुष्य-जाति के इतिहास में जो थोड़ी सी अपूर्व वाणियां हैं, उनमें एक है। गुनना, समझना, सूझना, बूझना, जीना...। और ये सूत्र तुम्हारे भीतर गूंजते रह जाएं:

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं। अहनिसि कथिबा ब्रह्मगियानं।
हंसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।।

ओशो
अध्याय शीर्षक
    #1: हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं
    #2: अज्ञात की पुकार
    #3: सहजै रहिबा
    #4: अदेखि देखिबा
    #5: मन मैं रहिणा
    #6: साधना: समझ का प्रतिफल
    #7: एकांत में रमो

विवरण
गोरख-वाणी पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई सीरीज के अंतर्गत दी गईं बीस OSHO Talks.

मरौ हे जोगी मरौ-
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं

गोरख एक श्रृंखला की पहली कड़ी हैं। उनसे एक नये प्रकार के धर्म का जन्म हुआ, आविर्भाव हुआ। गोरख के बिना न तो कबीर हो सकते हैं, न नानक हो सकते हैं, न दादू, न वाजिद, न फरीद, न मीरा--गोरख के बिना ये कोई भी न हो सकेंगे। इन सबके मौलिक आधार गोरख में हैं। फिर मंदिर बहुत ऊंचा उठा। मंदिर पर बड़े स्वर्ण-कलश चढ़े...। लेकिन नींव का पत्थर नींव का पत्थर है। और स्वर्ण-कलश दूर से दिखाई पड़ते हैं, लेकिन नींव के पत्थर से ज्यादा मूल्यवान नहीं हो सकते। और नींव के पत्थर किसी को दिखाई भी नहीं पड़ते, मगर उन्हीं पत्थरों पर टिकी होती है सारी व्यवस्था, सारी भित्तियां, सारे शिखर...। शिखरों की पूजा होती है, बुनियाद के पत्थरों को तो लोग भूल ही जाते हैं। ऐसे ही गोरख भी भूल गए हैं।

लेकिन भारत की सारी संत-परंपरा गोरख की ऋणी है। जैसे पतंजलि के बिना भारत में योग की कोई संभावना न रह जाएगी; जैसे बुद्ध के बिना ध्यान की आधारशिला उखड़ जाएगी; जैसे कृष्ण के बिना प्रेम की अभिव्यक्ति को मार्ग न मिलेगा--ऐसे गोरख के बिना उस परम सत्य को पाने के लिए विधियों की जो तलाश शुरू हुई, साधना की जो व्यवस्था बनी, वह न बन सकेगी। गोरख ने जितना आविष्कार किया मनुष्य के भीतर अंतर-खोज के लिए, उतना शायद किसी ने भी नहीं किया है। उन्होंने इतनी विधियां दीं कि अगर विधियों के हिसाब से सोचा जाए तो गोरख सबसे बड़े आविष्कारक हैं। इतने द्वार तोड़े मनुष्य के अंतर्तम में जाने के लिए, इतने द्वार तोड़े कि लोग द्वारों में उलझ गए। इसलिए हमारे पास एक शब्द चल पड़ा है--गोरख को तो लोग भूल गए--‘गोरखधंधा’ शब्द चल पड़ा है। उन्होंने इतनी विधियां दीं कि लोग उलझ गए कि कौन सी ठीक, कौन सी गलत, कौन सी करें, कौन सी छोड़ें...? उन्होंने इतने मार्ग दिए कि लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए, इसलिए गोरखधंधा शब्द बन गया। अब कोई किसी चीज में उलझा हो तो हम कहते हैं, क्या गोरखधंधे में उलझे हो!

गोरख के पास अपूर्व व्यक्तित्व था, जैसे आइंस्टीन के पास व्यक्तित्व था। जगत के सत्य को खोजने के लिए जो पैने से पैने उपाय अलबर्ट आइंस्टीन दे गया, उसके पहले किसी ने भी नहीं दिए थे। हां, अब उनका विकास हो सकेगा, अब उन पर और धार रखी जा सकेगी। मगर जो प्रथम काम था वह आइंस्टीन ने किया है। जो पीछे आएंगे वे नंबर दो होंगे। वे अब प्रथम नहीं हो सकते। राह पहली तो आइंस्टीन ने तोड़ी, अब इस राह को पक्का करने वाले, मजबूत करने वाले, मील के पत्थर लगाने वाले, सुंदर बनाने वाले, सुगम बनाने वाले बहुत लोग आएंगे। मगर आइंस्टीन की जगह अब कोई भी नहीं ले सकता। ऐसी ही घटना अंतर-जगत में गोरख के साथ घटी।

लेकिन गोरख को लोग भूल क्यों गए? मील के पत्थर याद रह जाते हैं, राह तोड़ने वाले भूल जाते हैं। राह को सजाने वाले याद रह जाते हैं, राह को पहली बार तोड़ने वाले भूल जाते हैं। भूल जाते हैं इसलिए कि जो पीछे आते हैं उनको सुविधा होती है संवारने की। जो पहले आता है, वह तो अनगढ़ होता है, कच्चा होता है। गोरख जैसे खदान से निकले हीरे हैं। अगर गोरख और कबीर बैठे हों तो तुम कबीर से प्रभावित होओगे, गोरख से नहीं। क्योंकि गोरख तो खदान से निकले हीरे हैं; और कबीर--जिन पर जौहरियों ने खूब मेहनत की, जिन पर खूब छेनी चली है, जिनको खूब निखार दिया गया है!

यह तो तुम्हें पता है न कि कोहिनूर हीरा जब पहली दफा मिला तो जिस आदमी को मिला था उसे पता भी नहीं था कि कोहिनूर है। उसने बच्चों को खेलने के लिए दे दिया था, समझ कर कि कोई रंगीन पत्थर है। गरीब आदमी था। उसके खेत से बहती हुई एक छोटी सी नदी की धार में कोहिनूर मिला था। महीनों उसके घर पड़ा रहा, कोहिनूर बच्चे खेलते रहे, फेंकते रहे इस कोने से उस कोने, आंगन में पड़ा रहा...। तुम पहचान न पाते कोहिनूर को। कोहिनूर का मूल वजन तीन गुना था आज के कोहिनूर से। फिर उस पर धार रखी गई, निखार किए गए, काटे गए, उसके पहलू उभारे गए। आज सिर्फ एक तिहाई वजन बचा है, लेकिन दाम करोड़ों गुना ज्यादा हो गए। वजन कम होता गया, दाम बढ़ते गए, क्योंकि निखार आता गया--और, और निखार...। कबीर और गोरख साथ बैठे हों, तुम गोरख को शायद पहचानो ही न; क्योंकि गोरख तो अभी गोलकोंडा की खदान से निकले कोहिनूर हीरे हैं। कबीर पर बड़ी धार रखी जा चुकी, जौहरी मेहनत कर चुके।...कबीर तुम्हें पहचान में आ जाएंगे।

इसलिए गोरख का नाम भूल गया है। बुनियाद के पत्थर भूल जाते हैं!
गोरख के वचन सुन कर तुम चौंकोगे। थोड़ी धार रखनी पड़ेगी; अनगढ़ हैं। वही धार रखने का काम मैं यहां कर रहा हूं। जरा तुम्हें पहचान आने लगेगी, तुम चमत्कृत होओगे। जो भी सार्थक है, गोरख ने कह दिया है। जो भी मूल्यवान है, कह दिया है।...

आज हम बुनियाद के एक पत्थर की बात शुरू करते हैं। इस पर पूरा भवन खड़ा है भारत के संत-साहित्य का! इस एक व्यक्ति पर सब दारोमदार है। इसने सब कह दिया है जो धीरे-धीरे बड़ा रंगीन हो जाएगा, बड़ा सुंदर हो जाएगा; जिस पर लोग सदियों तक साधना करेंगे, ध्यान करेंगे; जिसके द्वारा न मालूम कितने सिद्धपुरुष पैदा होेंगे!

मरौ वे जोगी मरौ!
ऐसा अदभुत वचन है! कहते हैं: मर जाओ, मिट जाओ, बिलकुल मिट जाओ!
मरौ वे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।
क्योंकि मृत्यु से ज्यादा मीठी और कोई चीज इस जगत में नहीं है।
तिस मरणी मरौ,...।
और ऐसी मृत्यु मरो--
...जिस मरणी गोरष मरि दीठा।
जिस तरह से मर कर गोरख को दर्शन उपलब्ध हुआ, ऐसे ही तुम भी मर जाओ और दर्शन को उपलब्ध हो जाओ।
ओशो

इस पुस्तक में ओशो निम्नलिखित विषयों पर बोले हैं:

विचार, ध्यान, प्रेम, मृत्यु, संगीत, मन, अहंकार, प्रार्थना, योग, साक्षीभाव

अधिक जानकारी
Publisher    OSHO Media International
ISBN-13    978-81-7261-158-3
Dimensions (size)    7.25 x 8.25 inch
Number of Pages    400

Reviews
Average: 5 (1 vote)