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जिन-सूत्र, भाग : चार

जिन-सूत्र, भाग : चार

महावीर क्या आए जीवन में, हजारों-हजारों बहारें आ गईं

पुस्तक

इस जगत की सबसे अपूर्व घटना है किसी व्यक्ति का सिद्ध या बुद्ध हो जाना। इस जगत की अनुपम घटना है किसी व्यक्ति का जिनत्व को उपलब्ध हो जाना, जिन हो जाना। उस अपूर्व घटना के पास जला लेना अपने बुझे हुए दीयों को। अवसर देना अपने हृदय को, कि फिर धड़क उठे उस अज्ञात की आकांक्षा से, अभीप्सा से।...महावीर के इन सूत्रों पर बात की है इसी आशा में कि तुम्हारे भीतर कोई स्वर बजेगा, तुम ललचाओगे, चाह उठेगी, चलोगे। ओशो
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:

  • चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता
  • ध्यान का अर्थ है:ऐसी जागरूक चेतना, जो कृत्य के साथ अपना तादात्म्य नहीं करती
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  • अशरण होने और असहाय होने के भावों में क्या भेद है?
  • सदगुरु के पास होना समर्पण के अतिरिक्त संभव नहीं है
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  • क्या प्रेम के मार्ग पर भी कोई सीढ़ियां होती हैं?
  • मृत्यु औरआत्मघात में बड़ा फर्क है•
  • प्रेम के अतिरिक्त और कोई विनम्रता नहीं है
  • तुमने कभी प्रेम किया किसी को?

सामग्री तालिका

अध्याय शीर्षक

    #1: ध्यान है आत्मरमण

    #2: मुक्ति द्वंद्वातीत है

    #3: ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत

    #4: गोशालक: एक अस्वीकृत तीर्थंकर

    #5: छह पथिक और छह लेश्याएं

    #6: पिया का गांव

    #7: षट पर्दों की ओट में


विवरण
भगवान महावीर के ‘समण-सुत्तं’ पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में ओशो द्वारा पर दिए गए 62 अमृत प्रवचनों में से 15 (48 से 62) अमृत प्रवचनों का अनुपम संकलन।

उद्धरण : जिन-सूत्र, भाग : चार - अड़तालिस्वा प्रवचन - ध्यान है आत्मरमण

मनुष्य के मन के आधार ही चुनाव में हैं। मनुष्य के मन की बुनियाद चुनने में है। चुना, कि मन आया। न चुनो, मन नहीं है। इसलिए कृष्णमूर्ति बहुत जोर देकर कहते हैं, च्वाइसलेस अवेयरनेस--चुनावरहित सजगता। चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। मन को तो बहुत लोग मिटाना चाहते हैं। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो मन से परेशान न हो। मन से बहुत पीड़ा मिलती है, बेचैनी मिलती है। मन का कोई मार्ग शांति तक, आनंद तक जाता नहीं; कांटे ही चुभते हैं। मन आशा देता है फूलों की, भरोसा बंधाता है फूलों का; हाथ आते-आते तक सभी फूल कांटे हो जाते हैं। ऊपर लिखा होता है--सुख। भीतर खोजने पर दुख मिलता है। जहां-जहां स्वर्ग की धारणा बनती है, वहीं-वहीं नरक की उपलब्धि होती है। तो स्वाभाविक है कि मनुष्य मन से छूटना चाहे; लेकिन चाह काफी नहीं है।

यह भी हो सकता है कि मन से छूटने की चाह भी मन को ही बनाए। क्योंकि सभी चाह मन को बनाती हैं। चाह मात्र मन की निर्मात्री है। तो बुनियाद को खोजना जरूरी है, मन बनता कैसे है? यह पूछना ठीक नहीं कि मन मिटे कैसे? इतना ही जानना काफी है कि मन बनता कैसे है! और हम न बनाएं तो मन नहीं बनता। हमारे बनाए बनता है। हम मालिक हैं। लेकिन ऐसा हो गया है कि बुनियाद में हम झांकते नहीं, जड़ों को हम देखते नहीं, पत्ते काटते रहते हैं। पत्ते काटने से कुछ हल नहीं होता। महावीर का यह पहला सूत्र, निर्विकल्प भाव-दशा के लिए पहला कदम है

महावीर कहते हैं, न तो राग में, न द्वेष में। ये दो ही तो मन के विकल्प हैं। इन्हीं में तो मन डोलता है, घड़ी के पेंडुलम की तरह। कभी मित्रता बनाता, कभी शत्रुता बनाता। कभी कहता अपना, कभी कहता पराया। जैसे ही तुमने राग बनाया, तुमने द्वेष के भी आधार रख दिए। खयाल किया? किसी को भी मित्र बनाए बिना शत्रु बनाना संभव नहीं। शत्रु बनाना हो तो पहले मित्र बनाना ही पड़े। तो मित्र बनाया कि शत्रुता की शुरुआत हो गई। तुमने कहा किसी से ‘मेरा है’, संयोग-मिलन को पकड़ा--बिछोह के बीज बो दिए। जिसे तुमने जोर से पकड़ा, वही तुमसे छीन लिया जाएगा। तो यह भी संभव हो जाता है कि आदमी देखता है, जिसे भी मैं पकड़ता हूं, वही मुझसे छूट जाता है। तो छोड़ने को पकड़ने लगता है, कि सिर्फ छोड़ने को पकड़ लूं। यही तो तुम्हारे त्यागी और विरागियों की पूरी कथा है। —ओशो


अधिक जानकारी
Publisher    OSHO Media International
ISBN-13    978-81-7261-279-5
Number of Pages    456

 

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