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तमसो मा ज्योतिर्गमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

पुस्तक — अन्य प्रारूपों में भी उपलब्ध है:ऑडियोपुस्तकें (English)
आपके पास अपनी सत्ता का कोई अनुभव नहीं है। और जिसे हम कहते हैं मेरा होना, मुझे लगता है कि मैं हूं--यह होना मेरा नहीं है। बल्कि और लोगों ने मुझे जो दिया है, उसका ही संग्रह है। स्वयं का यह अनुभव नहीं है, बल्कि आस-पास से आई हुई प्रतिध्वनियों का संग्रह है।
तमसो मा ज्योतिर्गमय – Tamsoma Jyotirgamay
अध्याय शीर्षक
  अध्याय शीर्षक
    #1: अंधकार में उतरने का साहस
    #2: अकेले होने का साहस
    #3: अपनी खोज, अपना सत्य
    #4: जीवन की भाषा
    #5: जीवन एक प्रवाह है
    #6: फूल खिलने का क्षण
    #7: ज्योति का स्पर्श
    #8: आध्यात्मिक साम्यवाद

विवरण
जीवन के विभिन्न पहलुओं पर पूना एवं बंबई में ओशो द्वारा दिए गए सात अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलनतमसो मा ज्योतिर्गमय – Tamsoma Jyotirgamay
बाहर विकास हो रहा है, भीतर कोई विकास नहीं हो रहा है। तीन हजार वर्षों में आदमी बाहर तो बहुत गति किया है--छोटे मकान बड़े मकान हुए हैं, बीमारियां कम हुई हैं, उम्र आदमी की बढ़ी है, ज्यादा सुख की सुविधाएं जुटी हैं, आदमी जमीन से चांद तक पहुंच गया है, लेकिन भीतर? भीतर हम वहीं खड़े हैं जहां आदिम, प्रिमिटिव आदमी खड़ा है। हम भीतर कहीं भी नहीं गए। भीतर हम इंच भर भी नहीं हिले। भीतर हम वहीं के वहीं खड़े हैं। बाहर विकास हो रहा है, भीतर आदमी ठहर कर खड़ा हो गया है। और इसीलिए इतनी परेशानी है दुनिया में। आदमी छोटा पड़ रहा है और आदमी का विकास बड़ा होता चला जा रहा है। आदमी बहुत छोटा हो गया है, विकास बहुत बड़ा हो गया है। उसके हाथ में एटम और हाइड्रोजन बम हैं और आदमी, आदमी बिलकुल आदिम है, बिलकुल प्रिमिटिव है। उसमें कोई विकास नहीं हुआ है। अविकसित आदमी के हाथ में विकसित साधन बड़े खतरनाक सिद्ध हो रहे हैं। अज्ञानी आदमी के हाथ में विज्ञान का सारा ज्ञान सुसाइडल, आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। यह होगा ही। यह होगा ही। यह होना बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन अगर यह एक बार खयाल आ जाए कि हमारे जीवन का सारा उपक्रम बाहर ही नहीं है, जीवन का सारा श्रम बाहर ही नहीं खो जाना चाहिए। हम भी हैं, मैं भी हूं, मेरा होना भी है और मेरे होने का भी, मेरे बीइंग का भी एक विकास है। क्या वहां प्रकाश है? कभी भीतर आंख बंद करके खोज की है? वहां प्रकाश है? वहां कोई दीया जलता है? वहां कोई सूरज निकलता है? वहां घनघोर अंधेरा है, वहां कोई प्रकाश नहीं है। वहां कोई सूरज नहीं निकलता। आंख बंद की कि हम अंधेरे में खो जाते हैं। और इसलिए हम आंख बंद करने से डरते हैं, इसलिए हम भीतर झांकने से भी डरते हैं। लोग कहते हैं, सुकरात से लेकर आज तक, सारे लोग कहते हैं, नो दाउ सेल्फ, अपने को जानें, भीतर जाएं। निरंतर शिक्षा दी जाती है, भीतर जाओ, अपने को जानो। लेकिन कोई आदमी भीतर नहीं जाना चाहता है। क्योंकि भीतर आंख बंद करता है कि अंधेरा हो जाता है। अंधेरे से डर लगता है। बाहर कम से कम प्रकाश तो है। बाहर कम से कम दिखाई तो पड़ता है, भीतर तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। या अगर भीतर भी कभी कुछ दिखाई पड़ता है, तो वे बाहर के ही प्रतिबिंब होते हैं, बाहर के ही रिफ्लेक्शन होते हैं। आंख बंद होती है, मित्र दिखाई पड़ते हैं, दुश्मन दिखाई पड़ते हैं। फिर भी आंख बंद न हुई, फिर भी हम बाहर ही हैं। बाहर की तस्वीरों को देखे चले जा रहे हैं। वहां पर एक रोशनी है। लेकिन भीतर जितने गहरे उतरते हैं, वहां उतना अंधेरा मालूम होता है। जैसे कोई गहरी अंधेरी खोह में उतर जाए। —ओशो

अधिक जानकारी
Publisher    OSHO Media International
ISBN-13    978-81-7261-364-8
Dimensions (size)    127 x 203 mm
Number of Pages    224

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