Anand Fri, 07/05/2021 - 07:15 am अष्टावक्र : महागीता ग बीते पर सत्य न बीता, सब हारा पर सत्य न हारा महाशय को कैसा मोक्ष! पतंजलि पूरे होते हैं समाधि पर; और अष्टावक्र की यात्रा ही शुरू होती है समाधि को छोड़ने से। जहां अंत आता है पतंजलि का वहीं प्रारंभ है अष्टावक्र का। अष्टावक्र आखिरी वक्तव्य हैं। इससे ऊपर कोई वक्तव्य कभी दिया नहीं गया। यह इस जगत की पाठशाला में आखिरी पाठ है। और जो अष्टावक्र को समझ ले, उसे फिर कुछ समझने को शेष नहीं रह जाता। उसने सब समझ लिया। और जो अष्टावक्र को समझ कर अनुभव भी कर ले, धन्यभागी है। वह तो फिर ब्रह्म में रम गया। ओशो अध्याय शीर्षक #1: शुष्कपर्णवत जीओ #2: घन बरसे #3: महाशय को कैसा मोक्ष! #4: एकाकी रमता जोगी #5: जानो और जागो #6: अपनी बानी प्रेम की बानी #7: दृष्य से द्रष्टा में छलांग #8: मन तो मौसम सा चंचल #9: स्वातंत्र्यात् परमं पदम् #10: दिल का दिवालय साफ करो अष्टावक्र-संहिता के सूत्रों पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई सीरीज के अंतर्गत दी गईं 91 OSHO Talks में से 10 (61 से 70) OSHO Talks उद्धरण:अष्टावक्र महागीता, भाग सात : #1 शुष्कपर्णवत जीओ अष्टावक्र कहते हैं कि जब तक कुछ भी आधार है तब तक डगमगाओगे। बुनियाद है तो भवन गिरेगा। देर से गिरे, मजबूत होगी बुनियाद तो; कमजोर होगी तो जल्दी गिरे, लेकिन आधार है तो गिरेगा। सिर्फ निराधार का भवन नहीं गिरता। कैसे गिरेगा, आधार ही नहीं! आधार है तो आज नहीं कल पछताओगे, साथ-संग छूटेगा। सिर्फ निराधार नहीं पछताता। है ही नहीं, जिससे साथ छूट जाए, संग छूट जाए। कोई हाथ में ही हाथ नहीं। परमात्मा तक का आधार मत लेना; ऐसी अष्टावक्र की देशना है। क्योंकि परमात्मा के आधार भी तुम्हारी कल्पना के ही खेल हैं। कैसा परमात्मा? किसने देखा? कब जाना? तुम्हीं फैला लोगे। पहले संसार का जाल बुनते रहे, निष्णात हो बड़ी कल्पना में; फिर तुम परमात्मा की प्रतिमा खड़ी कर लेते हो। पहले संसार में खोजते रहे, संसार से चूक गए, नहीं मिला। नहीं मिला क्योंकि वह भी कल्पना का जाल था, मिलता कैसे? अब परमात्मा का कल्पना-जाल फैलाते हो। अब तुम कृष्ण को सजा कर खड़े हो। अब उनके मुंह पर बांसुरी रख दी है। गीत तुम्हारा है। ये कृष्ण भी तुम्हारे हैं, यह बांसुरी भी तुम्हारी, यह गुनगुनाहट भी तुम्हारी। ये मूर्ति तुम्हारी है और फिर इसी के सामने घुटने टेक कर झुके हो। ये शास्त्र तुमने रच लिए हैं और फिर इन शास्त्रों को छाती से लगाए बैठे हो। ये स्वर्ग और नरक, और यह मोक्ष और ये इतने दूर-दूर के जो तुमने बड़े वितान ताने हैं, ये तुम्हारी ही आकांक्षाओं के खेल हैं। संसार से थक गए लेकिन वस्तुतः वासना से नहीं थके हो। यहां से तंबू उखाड़ दिया तो मोक्ष में लगा दिया है। स्त्री के सौंदर्य से ऊब गए, पुरुष के सौंदर्य से ऊब गए तो अप्सराओं के सौंदर्य को देख रहे हो। या राम की, कृष्ण की मूर्ति को सजा कर श्रृंगार कर रहे हो। मगर खेल जारी है। खिलौने बदल गए, खेल जारी है। खिलौने बदलने से कुछ भी नहीं होता। खेल बंद होना चाहिए। अष्टावक्र कहते हैं: ‘निर्वासनो निरालंबः।’ जिसकी वासना गिर गई उसका आश्रय भी गिर गया। अब आश्रय कहां खोजना है? वह खड़े होने को जगह भी नहीं मांगता। वह इस अतल अस्तित्व में शून्यवत हो जाता है। वह कहता है मुझे कोई आधार नहीं चाहिए। आधार का अर्थ ही है कि मैं बचना चाहता हूं, मुझे सहारा चाहिए। ज्ञानी ने तो जान लिया कि मैं हूं कहां? जो है, है ही। उसके लिए कोई सहारे की जरूरत नहीं है। यह जो मेरा मैं है इसको सहारे की जरूरत है क्योंकि यह है नहीं। बिना सहारे के न टिकेगा। यह लंगड़ा-लूला है; इसे बैसाखी चाहिए। निरालंब का अर्थ होता है: अब मुझे कोई बैसाखी नहीं चाहिए। अब कहीं जाना ही नहीं है, कोई मंजिल न रही तो बैसाखी की जरूरत क्या? पैर भी नहीं चाहिए। अब कोई यान नहीं चाहिए। अब तो डूबने की भी मेरी तैयारी है उतनी ही, जितनी उबरने की। अब तो जो करवा दे अस्तित्व, वही करने को तैयार हूं। तो अब नाव भी नहीं चाहिए। अब डूबते वक्त ऐसा थोड़े ही, कि मैं चिल्लाऊंगा कि बचाओ। ज्ञानी तो डूबेगा तो समग्रमना डूब जाएगा। डूबते क्षण में एक क्षण को भी ऐसा भाव न उठेगा कि यह क्या हो रहा है? ऐसा नहीं होना चाहिए। जो हो रहा है, वही हो रहा है। उससे अन्यथा न हो सकता है, न होने की कोई आकांक्षा है। फिर आश्रय कैसा? ओशोइस पुस्तक में ओशो निम्नलिखित विषयों पर बोले हैं अधिक जानकारी Publisher OSHO Media International ISBN-13 978-81-7261-374-7 Dimensions (size) 140 x 216 mm Number of Pages 300 Reviews Select ratingGive it 1/5Give it 2/5Give it 3/5Give it 4/5Give it 5/5 Average: 5 (1 vote) Log in to post comments14 views