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भारत एक अमृत-पथ

भारत एक अमृत-पथ : भारत एक सनातन यात्रा है, एक अमृत-पथ है, जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है। इसलिए हमने कभी भारत का इतिहास नहीं लिखा। इतिहास भी कोई लिखने की बात है! साधारण सी दो कौड़ी की रोजमर्रा की घटनाओं का नाम इतिहास है। जो आज तूफान की तरह उठती हैं और कल जिनका कोई निशान भी नहीं रह जाता। इतिहास तो धूल का बवंडर है। भारत ने इतिहास नहीं लिखा। भारत ने तो केवल उस चिरंतन की ही साधना की है, वैसे ही जैसे चकोर चांद को एकटक बिना पलक झपे देखता रहता है।

मैं भी उस अनंत यात्रा का छोटा-मोटा यात्री हूं। चाहता था कि जो भूल गए हैं, उन्हें याद दिला दूं; जो सो गए हैं, उन्हें जगा दूं। और भारत अपनी आंतरिक गरिमा और गौरव को, अपनी हिमाच्छादित ऊंचाइयों को पुनः पा ले। क्योंकि भारत के भाग्य के साथ पूरी मनुष्यता का भाग्य जुड़ा हुआ है। यह केवल किसी एक देश की बात नहीं है।

अगर भारत अंधेरे में खो जाता है, तो आदमी का कोई भविष्य नहीं है। और अगर हम भारत को पुनः उसके पंख दे देते हैं, पुनः उसका आकाश दे देते हैं, पुनः उसकी आंखों को सितारों की तरफ उड़ने की चाह से भर देते हैं तो हम केवल उनको ही नहीं बचा लेते हैं, जिनके भीतर प्यास है। हम उनको भी बचा लेते हैं, जो आज सोए हैं, लेकिन कल जागेंगे; जो आज खोए हैं, लेकिन कल घर लौटेंगे। भारत का भाग्य मनुष्य की नियति है।

ओशो
सामग्री तालिका
अध्याय शीर्षक
    अनुक्रम
    #1: भारत एक सनातन यात्रा है
    #2: भारत एक अनूठी संपदा
    #3: ध्यान का अनुदान
    #4: विराट ध्यान आंदोलन की आवश्यकता
    #5: पूरब की प्रतिभा: धर्म
    #6: भारतीय मनीषा और मनोविज्ञान
    #7: भारत के ध्वज पर चक्र
    #8: भारत के विश्वविद्यालय
    #9: समय का बोध
    #10: दीवाली का सार
    #11: स्वप्न क्या है?
    #12: पंतजलि का योग-विज्ञान
    #13: ईश्वर और शैतान
    #14: सिकंदर और संन्यासी
    #15: सम्राट मिलिंद और भिक्षु नागसेन
    #16: रसौ वै सः
    #17: तत्वमसि श्वेतकेतु!
    #18: होमा और सोमा
    #19: भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है
    #20: मोक्ष की धारणा केवल भारत में
    #21: परमात्मा नटराज है
    #22: काम से कौन कब जीता?
    #23: रामलीला का अर्थ
    #24: ताजमहल में ध्यान
    #25: दान और दक्षिणा
    #26: समत्व की खोज
    #27: शिवलिंग का प्रतीक
    #28: खजुराहो के मंदिर और आध्यात्मिक सेक्स
    #29: सदगुरु का अर्थ
    #30: उपदेश
    #31: सत्संग
    #32: कैटेलिटिक एजेंट
    #33: भगवान और ईश्वर
    #34: जयराम जी
    #35: गायत्री मंत्र
    #36: ज़ीरो की खोज
    #37: अर्थ, काम, धर्म, मोक्ष
    #38: मातृत्व और स्त्रैण रहस्य
    #39: दाढ़ी-मूंछ मुक्त बुद्धपुरुष
    #40: समर्पण का विज्ञान
    #41: बाबा अलाउद्दीन: अमि तो किछु नाई
    #42: भारत की संत-परंपरा और गोरख
    #43: अतुलनीय कबीर
    #44: रैदास: आकाश में ध्रुवतारा
    #45: झुक आयी बदरिया सावन की
    #46: तीरंदाज स्त्री का मार्गदर्शन
    #47: वाचस्पति और भामति
    #48: नचिकेता और यम
    #49: द्रोपदी और महाभारत
    #50: फकीर हरिदास
    #51: बाउल संगीत
    #52: हाथी और खरगोश
    #53: बोधिवृक्ष
    #54: भूरिबाई
    #55: भारत: द्वद्वं के पार
    #56: सिक्ख होना
    #57: आदेश और उपदेश
    #58: नानक के गीत
    #59: भीतर की बादशाहत
    #60: अक्षर शब्दयोग
    #61: बिना ताल जहं कंवल फुलाने
    #62: जीवंत संक्रमण
    #63: तपस्वी का उपहास
    #64: रवीन्द्रनाथ के गीत
    #65: महावीर, स्यादवाद और चार्वाक
    #66: संन्यास: वर्ण-व्यवस्था के बाहर
    #67: हिंदुस्तान के व्यक्तित्व में स्त्रैणता
    #68: लुकमान और आयुर्वेद
    #69: ओम्‌: सार्वभौमिक सत्य
    #70: इतिहास और पुराण
    #71: वेद विश्वकोश है
    #72: वेदों में ओंकार
    #73: ओंकार और वेद
    #74: ब्रह्मा, विष्णु, महेश के मंदिर
    #75: मंदिर का घंटा
    #76: भातर की सभ्यता की परम शिखर: महाभारत
    #77: बैताल पचीसी की अदभुत कथाएं
    #78: देवताओं को नमस्कार
    #79: राधा और धारा
    #80: विद्याओं में ब्रह्माविद्या
    #81: गंगा: भारत की आत्मा
    #82: ब्रह्ममुहूर्त
    #83: पुराण का अर्थ
    #84: ध्यान और मंदिर
    #85: मृगचर्म और खड़ाऊं
    #86: बुद्धं, संघं, धम्मं... शरणं गच्छामि
    #87: शिवनेत्र
    #88: गीता का प्रभाव
    #89: भैरव
    #90: नित्य पाठ
    #91: योगासन देह विद्युत
    #92: आषाढ़ पूर्णिमा का राज
    #93: सृष्टि और प्रलय
    #94: बस एक ही पाठ है
    #95: कैलाश
    #96: चरण-स्पर्श
    #97: एक साधे सब सधे
    #98: झुकने की आदत
    #99: बुद्धों का भारत
    #100: काली की प्रतिमा
    #101: देवता और प्रेतात्माएं
    #102: वर्ण आश्रम विज्ञान
    #103: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र
    #104: ब्राह्मण श्वेतकेतु
    #105: ब्रह्म, विष्णु, महेश
    #106: तंत्र: धर्म की अलौकिक अभिव्यक्ति
    #107: आह्वान
    #108: धर्म का राज

विवरण

ओशो की पुस्तकों से चुने हुए अंश

भूमिका -
चेतना की पहली किरन के साथ इन्सान की आंखों में जो सपना बस गया, ओशो उस सपने का नामकरण करते हैं--भारत। और इसीलिए भारत को भू-खंड की सीमा से मुक्त कर देते हैं। उनके लफ्ज़ों में--भारत कोई भू-खंड नहीं है, न राजनैतिक इकाई, न ऐतिहासिक तथ्यों का कोई टुकड़ा। भारत एक प्यास है, सत्य को पा लेने की। जमीन पर कोई कहीं भी पैदा हो, किसी देश में, किसी सदी में, अतीत में या भविष्य में, अगर कोई खोज अंतर की खोज है, किसी की भी, वह भारत का निवासी है। जातिवाद एक बहुत बड़ी समस्या है। समय-काल हार गया उसे सुलझाते हुए, कुछ नहीं कर पाया। ओशो सहज कह पाए हैं--देह शूद्र है, मन वैश्य, आत्मा क्षत्रिय, और परमात्मा ब्राह्मण। वे कुछ ब्योरे में उतरते हैं--देह शूद्र है, क्यों? क्योंकि देह की दौड़ सिर्फ इतनी है--खा लो, पी लो, भोग कर लो, सो जाओ, जाग जाओ और मर जाओ। यह शूद्र की सीमा है। जो देह में जीता है, वह शूद्र। शूद्र का अर्थ हुआ--मैं देह हूं। यह मनोदशा शूद्र है।

मन वैश्य है। खाने-पीने से ही राजी नहीं होता। कुछ और मांगता है। मन का अर्थ है--कुछ और चाहिए। शूद्र में एक तरह की सरलता है। देह में बड़ी सरलता है। वह कुछ ज्यादा नहीं मांगती। दो रोटी मिल जाए, सोने को छप्पर मिल जाए, और शरीर की मांग सीधी है--थोड़ी सी, सीमित सी। देह को असंभव में रस नहीं है। इसीलिए कहता हूं देह शूद्र है...। जब और-और की वासना उठती है, तो वैश्य हुआ। वैश्य का मतलब है--मन। और मन व्यवसायी है, वह फैलता चला जाता है, रुकना नहीं जानता...। क्षत्रिय का मतलब है--संकल्प, प्रबल संकल्प, कि मैं कौन हूं? इसे जान लूं! शूद्र शरीर को ही जानता है, उतने में ही जी लेता है। वैश्य मन के साथ दौड़ता है। और क्षत्रिय जानना चाहता है--मैं कौन हूं? इसीलिए चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण सब क्षत्रिय थे। क्योंकि ब्राह्मण होने से पहले क्षत्रिय होना जरूरी है। जिसने जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण समझ लिया, वह चूक गया। जैसे परशुराम ब्राह्मण नहीं हैं। उनसे बड़ा क्षत्रिय खोजना मुश्किल होगा। जिंदगी भर मारने का काम करते रहे। फरसा लेकर घूमते थे। उन्हें ब्राह्मण कहना ठीक नहीं है। सो--संकल्प क्षत्रिय है...। ऐसा समझो कि भोग यानी शूद्र। तृष्णा यानी वैश्य। संकल्प यानी क्षत्रिय। और जब संकल्प पूरा हो जाए, तब समर्पण की संभावना है...।


समर्पण--यानी ब्राह्मण। ब्राह्मण यानी ब्रह्म को जान लेना। जो मिटा उसने ब्रह्म को जाना...। और ओशो यह सब कहते हुए, आहिस्ता से हर रहस्य को खोलते हैं--भारत में पैदा होने से ही कोई भारत का नागरिक नहीं हो सकता। जो एक दुर्घटना की तरह भारत में पैदा हो गए, जब तक उनकी प्यास उन्हें दीवाना न कर दे, तब तक वे भारत के नागरिक होने के अधिकारी नहीं हैं। भारत एक सनातन यात्रा है, अनंत से अनंत तक फैला हुआ रास्ता... और ओशो की आवाज एक सीमा से निकल कर असीम में ढलती हुई कहती है--मेरे लिए भारत और अध्यात्म एक ही अर्थ में है...। मैं नहीं जानती--कौन सा काल था, कौन से ऋषि थे, जिन्होंने काल मुक्त होकर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश के गुणों से गुणातीत, त्रिपुरा सुंदरी का रहस्य पाया। आदि शक्ति का। उन ऋषियों ने कायामय होते हुए भी काया-मुक्त की सी अवस्था में त्रिपुरा सुंदरी का दर्शन किया। और कह सकती हूं--कि ओशो का होना कुछ उसी तरह की घटना है, कि उन्होंने ‘भारत शब्द को अध्यात्म नाम की जमीन पर पनपते हुए और खिलते हुए देखा। थोड़ा सा गहराई में जाएं, अध्यात्म की जमीन पर खिलते हुए फूल को समझने के लिए, तो ओशो की इन पंक्तियों को सामने रखना होगा--‘नहीं’ के बीच में जो कुछ है, जिसे जिंदगी कहा जाता है, यह असत्य होगा। जो पहले नहीं था, अब है, और फिर नहीं होगा, वह असत्य ही हो सकता है, सत्य नहीं। भारत में सत्य की एक परिभाषा है--जो काल में टिके। तीन काल में टिके। तीन काल में जिसका खंडन न हो। जो पहले भी था, अब भी है, और फिर भी होगा, वही सत्य है। जो कल नहीं था, अब है, और फिर नहीं होगा, भारत उसे असत्य कहता है।


त्रिपुरा सुंदरी का रहस्य ठीक यही है, तीन पुर, तीन नगर, तीन गुण, जो लीला खेलते हैं, उससे पहले भी त्रिपुरा सुंदरी थी, उस लीला में भी वह है, और उस लीला के बाद भी वह रहेगी। भारत ने इस सब-कुछ को साक्षीभाव से देखा, और इस सत्य को अंतर चेतना का नाम दिया। यही सत्य महा कारण से पहले था, महा कारण में आया, फिर कारण शरीर में, फिर सूक्ष्म शरीर में। और फिर वही सूक्ष्म--कायामय होता है...। दूसरे लफ्ज़ों में--यह कायामय होना कायनात के साज़ की आरोही है, और फिर काया-मुक्त होकर जो लौट जाना है, वह इसी साज़ की अवरोही है...। खामोशी का तरंगित हो जाना वही सत्य है, जो किसी ध्वनि का खामोशी में उतर जाना। इसलिए कह सकती हूं कि ओशो, भारत की खामोशी का तरंगित हो जाना है। बुद्ध, कृष्ण, नानक, भारत की ध्वनि थे, और जब हम से वह ध्वनि खो गई, तब उस ध्वनि को सुन पाने का और कह पाने का जो माध्यम हुआ, उस माध्यम का नाम ओशो है।


हम जब काल की सीमा में बंध जाते हैं, काल-मुक्त होकर सत्य को पाने का स्मरण भी खो जाता है। और उस समय किसी बुद्ध, किसी कृष्ण, किसी अष्टावक्र की आमद अंतर के अंधेरे में शक्ति कणों की तरह चमक जाती है। शक्ति कण अंतर में होते हैं, लेकिन उनका स्मरण नहीं होता। और बुद्ध, कृष्ण जैसी कोई आवाज उनका स्मरण देती है। ठीक उसी तरह ओशो हैं, जिन्होंने भारत के शक्ति कणों की स्मरण-गाथा कही है, इसलिए बड़े प्यार से, अंतर के गहरे अहसास से मैं ओशो को स्मरण-देवता कहना चाहती हूं। यह अंतर में कृष्ण की बांसुरी को सुनना है। इसी का स्मरण देते हुए ओशो के शब्द हैं--तुमने सुना कि कृष्ण की बांसुरी बजती है तो गोपियां अपने घरों में काम नहीं कर पातीं। उनके हाथ-पैर डगमगा जाते हैं, गगरी छूट जाती है, मथनी भूल जाती है, वे भागती हैं, मदहोश सी। यह कथा प्रतीक है--इंद्रियां प्रतीक हैं गोपियों की। और जिस दिन भीतर की बांसुरी बजने लगती है, तो इंद्रियां--अपनी मथनी, अपनी मटकी, अपनी गागर, सब भूल जाती हैं। भीतर के कृष्ण की बांसुरी बजने लगी, और इंद्रियां उसके आसपास नाचने लगीं। परिधि नाचने लगी केंद्र के पास। जिस तरह कृष्ण की बांसुरी को भीतर से सुनना है, ठीक उसी तरह ‘भारत--एक अमृत-पथ’ को पढ़ते-सुनते, इस यात्रा पर चल देना है। और कह सकती हूं कि अगर कोई तलब कदमों में उतरेगी, और कदम इस राह पर चल देंगे, तब वक्त आएगा कि यह राह सहज होकर कदमों के साथ चलने लगेगी, और फिर ‘यात्रा’ शब्द अपने अर्थ को पा लेगा!


यह अर्थ बहुत गहरा है--धारा से राधा हो जाने का। ओशो सुनाते हैं--पुराने शास्त्रों में राधा का कोई जिक्र नहीं। गोपियां हैं, सखियां हैं, कृष्ण बांसुरी बजाते हैं और रास की लीला होती है। राधा का नाम पुराने शास्त्रों में नहीं है। बस इतना सा जिक्र है, कि सारी सखियों में एक थी, जो छाया की तरह साथ रहती थी। यह तो सात सौ वर्ष पहले राधा का नाम प्रकट हुआ। गीत गाए जाने लगे, राधा और कृष्ण के। इस नाम की खोज में बहुत बड़ा गणित है। राधा शब्द बनता है धारा शब्द को उल्टा देने से। गंगोत्री से गंगा की धारा निकलती है। स्रोत से दूर जाने वाली अवस्था का नाम धारा है। और धारा शब्द को उल्टा देने से राधा हुआ, जिसका अर्थ है--स्रोत की तरफ लौट जाना। गंगा वापस लौटती है गंगोत्री की तरफ। बहिर्मुखता, अंतर्मुखता बनती है। ओशो जिस यात्रा की बात करते हैं--वह अपने अंतर में लौट जाने की बात करते हैं। एक यात्रा धारामय होने की होती है, और एक यात्रा राधामय होने की...।

--अमृता प्रीतम
इस पुस्तक में ओशो निम्नलिखित विषयों पर बोले हैं:

सत्य, अध्यात्म, पूरब, पश्चिम, संस्कृति, खोज, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष

अधिक जानकारी
Publisher    Diamond Pocket
ISBN-13    978-9352616275
Number of Pages    248

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