Skip to main content

कस्तूरी कुंडल बसै

कस्तूरी कुंडल बसै 

 

धर्म क्या है? शब्दों में, शास्त्रों में, क्रियाकांडों में या तुम्हारी अंतरात्मा में, तुममें, तुम्हारी चेतना की प्रज्वलित अग्नि में? धर्म कहां है? मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में? आदमी के बनाए हुए मंदिर-मस्जिदों में धर्म हो कैसे सकता है? धर्म तो वहां है जहां परमात्मा के हाथ की छाप है। और तुमसे ज्यादा उसके हाथ की छाप और कहां है? मनुष्य की चेतना इस जगत में सर्वाधिक महिमापूर्ण है। वहीं उसका मंदिर है; वहीं धर्म है |

धर्म है व्यक्ति और समष्टि के बीच प्रेम की एक प्रतीति--ऐसे प्रेम की जहां बूंद खो देती है अपने को सागर में और सागर हो जाती है; जहां सागर खो देता है अपने को बूंद में और बूंद हो जाता है; व्यक्ति और समष्टि के बीच ध्यान का ऐसा क्षण, जब दो नहीं बचते, एक ही शेष रह जाता है; प्रार्थना का एक ऐसा पल, जहां व्यक्ति तो शून्य हो जाता है; और समष्टि महाव्यक्तित्व की गरिमा से भर जाती है। इसलिए तो हम उस क्षण को ईश्वर का साक्षात्कार...। व्यक्ति तो मिट जाता है, समष्टि में व्यक्तित्व छा जाता है; सारी समष्टि एक महाव्यक्तित्व का रूप ले लेती है।

  • पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:
  • काम, क्रोध, लोभ से मुक्ति के उपाय
  • मान और अभिमान में क्या फर्क है?
  • श्रद्धा का क्या अर्थ है?
  • संकल्प का क्या अर्थ है?
  • धर्म और संप्रदाय में क्या भेद है?
  • जीवन का राज कहीं छिपा है?

सामग्री तालिका

अध्याय शीर्षक

    अनुक्रम

    #1: अंतर्यात्रा के मूल सूत्र

    #2: मधर्म कला है--मृत्यु की, अमृत की

    #3: मन के जाल हजार

    #4: विराम है द्वार राम का

    #5: धर्म और संप्रदाय में भेद

    #6: धर्म और संप्रदाय में भेद

 

कबीर ने बड़ा प्यारा प्रतीक चुना है। जिस मंदिर की तुम तलाश कर रहे हो, वह तुम्हारे कुंडल में बसा है; वह तुम्हारे ही भीतर है; वह तुम ही हो। और जिस परमात्मा की तुम मूर्ति गढ़ रहे हो, उसकी मूर्ति गढ़ने की कोई जरूरत ही नहीं; तुम ही उसकी मूर्ति हो। तुम्हारे अंतर-आकाश में जलता हुआ उसका दीया, तुम्हारे भीतर उसकी ज्योतिर्मयी छवि मौजूद है। तुम मिट्टी के दीये भला हो ऊपर से, भीतर तो चिन्मय की ज्योति है। मृण्यम होगी तुम्हारी देह; चिन्मय है तुम्हारा स्वरूप। मिट्टी के दीये तुम बाहर से हो; ज्योति थोड़े ही मिट्टी की है। दीया पृथ्वी का है; ज्योति आकाश की है। दीया संसार का है; ज्योति परमात्मा की है। ओशो पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु: • काम, क्रोध और लोभ से मुक्ति के उपाय • मान और अभिमान में क्या फर्क है? •श्रद्धा का क्या अर्थ है? •संकल्प का क्या अर्थ है? •धर्म और संप्रदाय में क्या भेद है? •जीवन का राज कहां छिपा है?


उद्धरण : कस्तूरी कुंडल बसै - पांचवा प्रवचन - धर्म और संप्रदाय में भेद


धर्म व्यक्ति और समष्टि के बीच घटी एक अनूठी घटना है; लेकिन ध्यान रहे, सदा व्यक्ति और समष्टि के बीच, व्यक्ति और समाज के बीच नहीं। और जिनको तुम धर्म कहते हो, वे सभी व्यक्ति और समाज के संबंध हैं। अच्छा हो, तुम उन्हें संप्रदाय कहो, धर्म नहीं। और संप्रदाय से धर्म का उतना ही संबंध है जितना जीवन का मुर्दा लाश से। कल तक कोई मित्र जीवित था, चलता था, उठता था, हंसता था, प्रफुल्लित होता था; आज प्राणपखेरू उड़ गए, लाश पड़ी रह गई--उस व्यक्ति की हंसी से, मुस्कुराहट से, गीत से, उस व्यक्ति के मनोभाव से, उस व्यक्ति के उठने, बैठने, चलने से, उस व्यक्ति के चैतन्य से, इस लाश का क्या संबंध है? पक्षी उड़ गया, पिंजरा पड़ा रह गया--वह जो आज आकाश में उड़ रहा है पक्षी, उससे इस लोहे के पिंजरे का क्या संबंध है? उतना ही संबंध है धर्म और संप्रदाय का।

धर्म जब मर जाता है, तब संप्रदाय पैदा होता है। और जो संप्रदाय में बंधे रह जाते हैं, वे कभी धर्म को उपलब्ध नहीं हो पाते। धर्म को उपलब्ध होना हो तो संप्रदाय की लाश से मुक्त होना अत्यंत अनिवार्य है। अगर तुम समझदार होते तो तुम संप्रदाय के साथ भी वही करते, जो घर में कोई मर जाता है तो उसकी लाश के साथ करते हो। तुम मरघट ले जाते, दफना आते, आग लगा देते। लाश को कोई सम्हाल कर रखता है? लेकिन तुम समझदार नहीं हो और लाश को सदियों से सम्हाल कर रखे हो--लाश सड़ती जाती है, उससे सिर्फ दुर्गंध आती है। उससे पृथ्वी पर कोई प्रेम का राज्य निर्मित नहीं होता, सिर्फ घृणा फैलती है, जहर फैलता है। धर्म तो एक है, लाशें अनेक हैं; क्योंकि धर्म बहुत बार अवतरित हुआ और बहुत बार तिरोहित होता है--हर बार लाश छूट जाती है। तीन सौ संप्रदाय हैं पृथ्वी पर, और सब आपस में कलह से भरे हुए हैं। सब एक-दूसरे की निंदा और एक-दूसरे को गलत सिद्ध करने की चेष्टा में संलग्न हैं, जैसे घृणा ही उनका धंधा है। तुम्हारे मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों से अब प्रेम के स्वर नहीं उठते, प्रार्थना की बांसुरी नहीं बजती, सिर्फ घृणा का धुआं उठता है। यह हो सकता है कि तुम घृणा के धुएं के इतने आदी हो गए हो कि तुम्हें पता ही नहीं चलता; कि तुम्हारी आंखें उस धुएं से इतनी भर गई हैं कि अब और आंखों से आंसू नहीं गिरते; या तुम इतने अंधे हो गए हो कि आंख ही तुम्हारे पास नहीं कि जिससे आंसू गिर सकें |

लेकिन धर्म मरता है। थोड़ी हैरानी होगी, क्योंकि धर्म तो शाश्वत है--धर्म कैसे मर सकता है? निश्चित ही धर्म शाश्वत है, लेकिन इस पृथ्वी पर उसका कोई भी रूप शाश्वत नहीं है। जैसे तुम तो बहुत बार पैदा हुए, मरोगे; तुम्हारे भीतर जो छिपा शाश्वत है, वह कभी पैदा नहीं होता, कभी नहीं मरता। लेकिन तुम? तुम तो आओगे, देह धरोगे; यह देह मरेगी, फिर और देह धरोगे, वह भी मरेगी। थोड़ी देर सोचो, अगर आदमियों ने यह किया होता कि जितने लोगों ने अब तक देह धरी हैं, सबकी लाशें बचा ली होतीं, अगर तुम्हारी अकेले एक व्यक्ति की सब लाशें बचा ली होतीं, तो पृथ्वी पूरी तुम्हारी ही लाशों से भर जाती। क्योंकि तुम कभी पक्षी थे, कभी पशु थे, कभी पौधे थे। हिंदू कहते हैं, चौरासी करोड़ योनियों से तुम गुजरे हो। अगर एक योनि से एक बार गुजरे हो--जो कि कम से कम है, जिसके लिए बहुत ज्ञानवान होना जरूरी है कि एक बार में ही छुटकारा हो जाए एक योनि से--अगर हम न्यूनतम मान लें कि तुम एक योनि से एक बार गुजरे हो तो तुम्हारी चौरासी करोड़ लाशें अगर सम्हाल कर रखी जाती तो होतीं, जमीन भर जाती, पट जाती उनसे। तुम्हारी ज्योति बहुत दीयों में जली है। ज्योति उड़ जाती है; दीये को सम्हाल कर रखते जाओ, मुश्किल में पड़ जाओगे। जिस जगह पर तुम बैठे हो, एक-एक इंच जगह पर करोड़ों लाशें गड़ी हैं। क्योंकि कितने लोग हैं! कितनी आत्माएं हैं! और कितने वर्तुल सबने लिए हैं !

ज्योति चली जाती है, लाश को हम दफना आते हैं। धर्म के साथ ऐसा नहीं हो पाया--ज्योति तो चली जाती है, लाश रह जाती है। लाश को हम सम्हाल लेते हैं। लाश सूक्ष्म है, इसलिए दुर्गंध का भी पता उन्हीं को चलता है जिनके पास बड़े तीव्र नासापुट हों। लाश इतनी सूक्ष्म है कि कबीर जैसी आंखें हों, तो ही दिखाई पड़ती है। इसलिए धर्म पर संप्रदाय इकट्ठे हो जाते हैं और जब भी कोई नया दीया आविर्भूत होता है--सनातन की ज्योति को लेकर, तब मरे हुए सारे संप्रदाय उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। क्योंकि वह एक नया प्रतियोगी है, और प्रतियोगी असाधारण है। उसके साथ जीता भी नहीं जा सकता, क्योंकि वह जीवित है, तुम मुर्दा हो। इसलिए सारे संप्रदाय धर्म के दीये को बुझाने में संलग्न रहते हैं। इसलिए तो महावीर पर पत्थर फेंके जाते हैं; बुद्ध का अपमान किया जाता है; जीसस को सूली दी जाती है; मंसूर की गर्दन काटी जाती है। वे जो प्रतिष्ठित संप्रदाय हैं, वे जब भी धर्म की ज्योति जगेगी, तभी भयभीत हो जाते हैं--खतरा पैदा हुआ। क्योंकि यह एक ज्योति उन सबको मिटा देने के लिए काफी है।

और विराट वृक्ष पैदा होता है | वह छोटा सा बीज - जतन का बीज है, ध्यान का बीज है| ओशो

 

अधिक जानकारी
Publisher OSHO Media International
ISBN-13 978-81-7261-299-3
Number of Pages 260
Reviews
Average: 5 (1 vote)