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गीता-दर्शन भाग सात

गीता-दर्शन : अर्जुन की मनःस्थिति को ठीक से समझ लें, तो फिर कृष्ण का प्रयास समझ में आ सकता है कि कृष्ण क्या कर रहे हैं। अर्जुन उस दुविधा में खड़ा है, जो प्रत्येक मन की दुविधा है। और जब तक मन रहेगा, दुविधा रहेगी।...
गीता एक बड़ा गहन मनो-मंथन है। एक शब्द में भी कृष्ण कह सकते थे कि मुझे पता है भविष्य। तू युद्ध कर। पर कृष्ण की अनुकंपा यही है कि उत्तर न देकर, अर्जुन के मन को गिराने की वे चेष्टा कर रहे हैं। जहां से संदेह उठते हैं, उस स्रोत को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं; न कि संदेह के ऊपर आस्था और श्रद्धा का एक पत्थर रखकर उसको दबाने की।
अर्जुन को किसी तरह समझा-बुझा देने की कोशिश नहीं है। अर्जुन को रूपांतरित करने की चेष्टा है। अर्जुन नया हो जाए, वह उस जगह पहुंच जाए, जहां मन गिर जाता है। जहां मन गिरता है, वहां संदेह गिर जाता है। क्योंकि कौन करेगा संदेह? जहां मन गिरता है, वहां भविष्य गिर जाता है, क्योंकि कौन सोचेगा भविष्य? मन के गिरते ही वर्तमान के अतिरिक्त और कोई अस्तित्व नहीं है। मन के गिरते ही व्यक्ति कर्म करता है, लेकिन कर्ता नहीं होता है। क्योंकि वहां कोई अहंकार नहीं बचता पीछे, जो कहे, मैं। मन ही कहता है, मैं।"—ओशो
इस पुस्तक में गीता के चौदहवें, पंद्रहवें व सोलहवें अध्याय--गुणत्रय-विभाग-योग, पुरुषोत्तम योग व दैव-असुर-संपद-विभाग-योग--तथा विविध प्रश्नों व विषयों पर चर्चा है।

  • कुछ विषय-बिंदु:
  • सिद्धि का अर्थ
  • जीवन के तीन मौलिक तत्व
  • रूपांतरण का सूत्र
  • दैवी व आसुरी जीवन का भेद

सामग्री तालिका

अध्याय शीर्षक

    अनुक्रम

    #1: अध्याय-14

    त्रिगुणात्मक जीवन के पार

    हे निष्पाप अर्जुन

    होश: सत्व का द्वार

    रूपांतरण का सूत्र: साक्षी-भाव

    असंग साक्षी

विवरण

श्रीमदभगवदगीता के अध्याय चौदह ‘गुणत्रय-विभाग-योग’— अध्याय पंद्रह ‘पुरुषोत्तम-योग’— एवं अध्याय सोलह ‘दैव-असुर-संपद-विभाग-योग’— पर वुडलैंड, मुंबई एवं पुणे में प्रश्नोत्तर सहित हुई प्रवचनमाला के अंतर्गत ओशो द्वारा दिए गए पच्चीस प्रवचन


उद्धरण : गीता-दर्शन भाग सात - चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि


"कृष्ण की पूरी चेष्टा यही है कि अर्जुन कैसे मिट जाए। गुरु का सारा उपाय सदा ही यही रहा है कि शिष्य कैसे मिट जाए।

यहां जरा जटिलता है। क्योंकि शिष्य मिटने नहीं आता। शिष्य होने आता है। शिष्य बनने आता है, कुछ पाने आता है। सफलता, शांति, सिद्धि, मोक्ष, समृद्धि, स्वास्थ्य--कुछ पाने आता है। इसलिए गुरु और शिष्य के बीच एक आंतरिक संघर्ष है। दोनों की आकांक्षाएं बिलकुल विपरीत हैं। शिष्य कुछ पाने आया है और गुरु कुछ छीनने की कोशिश करेगा। शिष्य कुछ होने आया है, गुरु मिटाने की कोशिश करेगा। शिष्य कहीं पहुंचने के लिए उत्सुक है, गुरु उसे यहीं ठहराने के लिए उत्सुक है।

पूरी गीता इसी संघर्ष की कथा है। अर्जुन घूम-घूमकर वही चाहता है, जो प्रत्येक शिष्य चाहता है। कृष्ण घूम-घूमकर वही करना चाह रहे हैं, जो प्रत्येक गुरु करना चाहता है। एक दरवाजे से कृष्ण हार जाते लगते हैं, क्योंकि अज्ञान गहन है, तो दूसरे दरवाजे से कृष्ण प्रवेश की कोशिश करते हैं। वहां भी हारते दिखाई पड़ते हैं, तो तीसरे दरवाजे से प्रवेश करते हैं।

ध्यान रहे, शिष्य बहुत बार जीतता है। गुरु सिर्फ एक बार जीतता है। गुरु बहुत बार हारता है शिष्य के साथ। लेकिन उसकी कोई हार अंतिम नहीं है। और शिष्य की कोई जीत अंतिम नहीं है। बहुत बार जीतकर भी शिष्य अंततः हारेगा। क्योंकि उसकी जीत उसे कहीं नहीं ले जा सकती। उसकी जीत उसके दुख के डबरे में ही उसे डाले रखेगी। और जब तक गुरु न जीत जाए, तब तक वह दुख के डबरे के बाहर नहीं आ सकता है। लेकिन संघर्ष होगा। बड़ा प्रीतिकर संघर्ष है। बड़ी मधुर लड़ाई है।

शिष्य की अड़चन यही है कि वह कुछ और चाह रहा है। और इन दोनों में कहीं मेल सीधा नहीं बैठता। इसलिए गीता इतनी लंबी होती जाती है। एक दरवाजे से कृष्ण कोशिश करते हैं, अर्जुन वहां जीत जाता है। जीत जाता है मतलब, वहां नहीं टूटता। जीत जाता है मतलब, वहां नहीं मिटता। चूक जाता है उस अवसर को। उसकी जीत उसकी हार है। क्योंकि अंततः जिस दिन वह हारेगा, उसी दिन जीतेगा। उसकी हार उसका समर्पण बनेगी।"—ओशो

 

अधिक जानकारी
Publisher Divyansh Publication
ISBN-13 978-93-84657-61-1
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