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एस धम्मो सनंतनो—भाग बारह

एस धम्मो सनंतनो

धम्मपद: बुद्ध-वाणी

 

जागो और जीओ
धम्मपद के तो अंतिम सूत्र का दिन आ गया, लेकिन इस सत्संग को भूल मत जाना। इसे सम्हाल कर रखना। यह परम संपदा है। इसी संपदा में तुम्हारा सौभाग्य छिपा है। इसी संपदा में तुम्हारा भविष्य है। फिर-फिर इन गाथाओं को सोचना। फिर-फिर इन गाथाओं को गुनगुनाना। फिर-फिर इन अपूर्व दृश्यों को स्मरण में लाना। ताकि बार-बार के आघात से तुम्हारे भीतर सुनिश्चित रेखाएं हो जाएं। पत्थर पर भी रस्सी आती-जाती रहती है, तो निशान पड़ जाते हैं। ओशो

अध्याय शीर्षक

    #113: संन्यास की मंगल-वेला

    #114: जीने की कला

    #115: विराट की अभीप्सा

    #116: राजनीति और धर्म

    #117: बुद्धत्व का आलोक

    #118: समग्र संस्कृति का सृजन

    #119: ब्राह्मणत्व के शिखर--बुद्ध

    #120: अप्प दीपो भव!

    #121: जागो और जीओ

    #122: एस धम्मो सनंतनो

 

भगवान बुद्ध की सुललित वाणी धम्मपद पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई सीरीज के अंतर्गत दी गईं 122 OSHO Talks में से 10 (113 से 122) OSHO Talks का संग्रह


उद्धरण: एस धम्मो सनंतनो—भाग बारहसमग्र संस्कृति का सृजन

जो कहता है: मैं सिर्फ शरीर हूं, वह अपनी गहराई को इनकार कर रहा है। वह परेशानी में पड़ेगा। जो कहता है: मैं सिर्फ आत्मा हूं, वह अपने बाहर को इनकार कर रहा है। यह परेशानी में पड़ेगा। तुम बाहर-भीतर का मेल हो। और अपूर्व मेल घट रहा है तुम्हारे भीतर।

यही तो रहस्य है इस जगत का कि यहां विरोधाभास मिल जाते हैं; एक-दूसरे में डूब जाते हैं। यहां विरोधाभास आलिंगन करते हैं। भारत नष्ट हुआ; होना ही था। अमरीका भी नष्ट हो रहा है; होना ही है। क्योंकि अब तक मनुष्य समग्र संस्कृति पैदा नहीं कर पाया। अब तक मनुष्य पूर्ण संस्कृति पैदा नहीं कर पाया--ऐसी संस्कृति जहां सब स्वीकार हो। जहां प्रेम भी स्वीकार हो और ध्यान भी स्वीकार हो। खयाल रखना, ध्यान यानी आत्मा; ध्यान यानी भीतर जाने का मार्ग। और प्रेम यानी बाहर जाने का मार्ग। जब तुम प्रेम करते हो, तो किसी से करते हो। और जब ध्यान करते हो, तो सबसे टूट जाते हो; अकेले हो जाते हो। ध्यान यानी एकांत। जब तुम ध्यान में हो, तब तुम आंख बंद कर लेते हो। तुम बाहर को भूल जाते हो। तुम अपनी देह को भी विस्मृत कर देते हो। संसार गया। तुम अपने भीतर जीते हो; भीतर धड़कते हो। चैतन्य में और गहरे उतरते जाते हो।

जब तुम प्रेम में उतरते हो, तो अपने को भूल जाते हो; तब दूसरे पर आंख टिक जाती है। तुम्हारी प्रेयसी या तुम्हारा प्रेमी, तुम्हारा बेटा या तुम्हारी मां, तुम्हारा मित्र, जिससे तुम प्रेम करते हो, वही सब कुछ हो जाता है। सारी आंख उस पर टिक जाती है। तुम अपने को विस्मृत कर देते हो। स्व को भूल जाते हो, पर को याद करते हो प्रेम में। ध्यान में पर को भूल जाते हो; स्व को याद करते हो। पूरब ने ध्यान की ऊंचाई पायी, प्रेम में चूक गया। प्रेम में चूक गया, तो पतन होना निश्चित था। क्योंकि प्रेम भोजन है, अत्यंत जरूरी; अत्यंत पौष्टिक भोजन है। उसके बिना कोई नहीं जी सकता।

प्रेम ऐसे ही है, जैसे सांस लेना। बाहर से ही लोगे न सांस! और तो कोई उपाय नहीं है। अगर बाहर से सांस लेना बंद कर दोगे, तो शरीर घुट जाएगा। और बाहर से प्रेम आना बंद हो जाएगा और जाना बंद हो जाएगा, तो आत्मा घुट जाएगी। भारत की आत्मा घुट गयी प्रेम के अभाव में।

पश्चिम ने प्रेम को तो खूब फैलाया है, लेकिन ध्यान का उसे कुछ पता नहीं है। इसलिए प्रेम छिछला है, उथला है। उसमें कोई गहराई नहीं है। उसमें गहराई हो ही नहीं सकती, क्योंकि आदमी स्वीकार ही नहीं करता है कि हमारे भीतर कोई गहराई है। तो प्रेम ऐसे ही है, जैसे और सारे छोटे-मोटे काम हैं। एक मनोरंजन है; शरीर का थोड़ा विश्राम; उलझनों से थोड़ा छुटकारा। लेकिन कोई गहराई की संभावना नहीं है; आंतरिकता नहीं है।

दो प्रेमी बस एक-दूसरे की शारीरिक जरूरत पूरी कर रहे हैं; आत्मिक कोई जरूरत है ही नहीं। तो जिस दिन शरीर की जरूरतें पूरी हो गयीं या शरीर थक गया, तो एक-दूसरे से अलग हो जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। क्योंकि भीतर तो कोई जोड़ हुआ ही नहीं था। आत्माएं तो कभी मिली नहीं थीं। आत्माएं तो स्वीकृत ही नहीं हैं। तो बस, हड्डी-मांस-मज्जा का मिलन है। गहरा नहीं हो सकता। पश्चिम ने ध्यान को छोड़ा है, तो प्रेम उथला है। पश्चिम भी गिरेगा; गिर रहा है। गिरना शुरू हो गया है। एक शिखर छू लिया अति का, अब भवन खंडहर हो रहा है। यह अति का परिणाम है।

मैं तुम्हें चाहूंगा कि तुम जानो कि तुम्हारे भीतर ध्यान की क्षमता हो और तुम्हारे भीतर प्रेम की क्षमता हो। ध्यान तुम्हें अपने में ले जाए; प्रेम तुम्हें दूसरे में ले जाए। और जितना ध्यान तुम्हारा अपने भीतर गहरा होगा, उतनी तुम्हारी प्रेम की पात्रता बढ़ जाएगी, योग्यता बढ़ जाएगी। और जितनी तुम्हारी प्रेम की पात्रता और योग्यता बढ़ेगी, उतना ही तुम पाओगे: तुम्हारा ध्यान में और गहरे जाने का उपाय हो गया। इन दोनों पंखों से उड़ो, तो परमात्मा दूर नहीं है।...

अब हम ऐसे ध्यानी पैदा करें, जो प्रेम कर सकें। और ऐसे प्रेमी पैदा करें, जो ध्यान कर सकें।
ओशो

इस पुस्तक में ओशो निम्नलिखित विषयों पर बोले हैं:
जीवन, सत्य, मृत्यु, प्रेम, ध्यान, मौन, संकल्प, राजनीति, संस्कृति, मोह

 

अधिक जानकारी
Publisher OSHO Media International
ISBN-13 978-81-7261-354-9
Dimensions (size) 140 x 216 mm
Number of Pages 326
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