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काहे होत अधीर

काहे होत अधीर

ओशो द्वारा पलटू-वाणी पर दिए गए उन्नीस प्रवचनों का यह संकलन एक अप्रतिम कृति है।
संत पलटू के भक्तिसिक्त वचनों पर ओशो की अमृत देशना के साथ ही साथ इस संकलन में एक अविस्मरणीय घटना की चित्र-कथा भी उपलब्ध है।

ओशो के संबुद्ध पिताश्री स्वामी देवतीर्थ भारती (दद्दाजी) के महापरिनिर्वाण की दुर्लभ चित्र-कथा आर्ट पेपर पर 32 रंगीन पृष्ठों में अंकित है। इस संबंध में प्रश्नों के उत्तर देते हुए ओशो ने दद्दाजी के आत्मीय पारिवारिक संबंध, अपने ही पुत्र से संन्यास लेने, ध्यान के प्रति उनके अथक श्रम, अंतत: संबोधि की उपलब्धि एवं महापरिनिर्वाण की अघट घटना पर प्रकाश डाला है।एक संबुद्ध पुत्र द्वारा अपने पिता को क्रमश: संबोधि एवं महापरिनिर्वाण तक सहायक होने का यह अभूतपूर्व दस्तावेज, हर साधक के लिए एक अमूल्य धरोहर है।

  • पुस्तक के कुछ मुख्य विषय बिंदु:
  • क्रांति की आधारशिलाएं
  • प्रेम एकमात्र नाव है
  • प्रेम तुम्हारा धर्म है
  • क्या ध्यान और सृजन साथ-साथ संभव नहीं है?
  • झुकने की कला क्या है?
  • जीवन इतना उलटा-उलटा क्यों मालूम होता है?

सामग्री तालिका

अध्याय शीर्षक

    #1: पाती आई मोरे पीतम की

    #2: अमृत में प्रवेश

    #3: साजन-देश को जाना

    #4: मौलिक धर्म

    #5: बैराग कठिन है

    #6: क्रांति की आधारशिलाएं

    #7: साहिब से परदा न कीजै

 

ओशो द्वारा पलटू-वाणी पर दिए गए उन्नीस अमृत प्रवचनों का संकलन।


उद्धरण : काहे होत अधीर - तीसरा प्रवचन - साजन-देश को जाना


"गुरु ने पहचान करवा दी। गंगा-यमुना को अलग छांट कर बता दिया और दोनों के बीच में छिपी हुई अदृश्य चेतना की धार--साक्षी से मिलन करवा दिया। गुरु ने उसी ठांव से हमें जुड़ा दिया, उसी मंजिल पर पहुंचा दिया--उस अदृश्य, अगोचर, अनिर्वचनीय! उसको ठैयां कहा है, ठांव कहा है। तेहिं ठैयां जोरल सनेहिया हो! और कला यह है गुरु की कि प्रेम के माध्यम से उस ठांव तक पहुंचा दिया; उस अदृश्य से, अनिर्वचनीय से मिलन करवा दिया। वह भी प्रीति से, प्रेम से! और हमारे हृदय को ही नहीं चुरा कर ले गया, उसी चोरी के साथ एक चोरी और भी हो गई: हमारी सारी पीर, हमारी सारी पीड़ा भी चुरा कर ले गया। पीछे रह गया सिर्फ आनंद का एक सागर।

और जिसने भी इस योग को जान लिया, इस मिलन को जान लिया--योग का अर्थ होता है: मिलन--जिसने भी स्वयं के और परमात्मा के मिलन को जान लिया, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं है; वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।

पलटूदास कहते हैं, घबराना मत। रास्ता अंधेरा हो, चिंता न लेना; कंटकाकीर्ण हो, लौट मत जाना; विरह की अग्नि सताए, घबरा मत जाना। यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है परमात्मा से मिलना। यह तुम्हारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है। वह प्यारा मिलेगा, यह तुम्हारी किस्मत में लिखा है। देर-अबेर तुम चाहे कितनी ही करो, वह प्यारा मिलेगा। यह तुम्हारा अधिकार है।

और कोई चीज इस परम लक्ष्य में बाधा न बने--धन, पद, प्रतिष्ठा। और कोई चीज इस परम लक्ष्य में बाधा न बने--परिवार, प्रियजन, मित्र। और कोई चीज इस परम लक्ष्य में बाधा न बने, इसका स्मरण रखना। हजार बाधाएं हैं, हजार प्रलोभन हैं। तुम्हारी अवस्था ऐसी है जैसे छोटे से बच्चे की मेले में हो जाती है, जहां खिलौनों ही खिलौनों की दुकानें लगी हैं। इस दुकान की तरफ खिंचता है कि यह खिलौना खरीद लूं, उस दुकान की तरफ खिंचता है कि वह खिलौना खरीद लूं। सारे खिलौने खरीद लेना चाहता है। ऐसी तुम्हारी दशा है।

संसार मेला है, दुकानों पर खिलौने ही खिलौने टंगे हैं--तरह-तरह के, रंग-बिरंगे खिलौने हैं, मन-भावक खिलौने हैं। मगर सब खिलौने हैं। कितने ही खिलौने खरीद लो, सब टूट जाएंगे, सब यहीं पड़े रह जाएंगे। और तुम्हें खाली हाथ जाना होगा।

और खाली हाथ नहीं जाना है, कस्द करो! संकल्प लो, खाली हाथ नहीं जाना है!"—ओशो

 

अधिक जानकारी
Publisher OSHO Media International
ISBN-13 978-81-7261-123-1
Number of Pages 556
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