प्रेम मुक्ति है और मोह बन्धन
प्रिय कोठारी जी,
स्नेह । प्रेम व मोह में भेद पूछा है ।
मैं सब भेदों के पीछे एक ही भेद देखता हूँ ।
वह एक मूल भेद ही सब में प्रकट होता है ।
वह भेद क्या है ?
मैं या तो अपने को जानता हूँ या नहीं जानता हूँ ।
'मैं कौन हूँ ?' यह न जानने से जो प्रीति पैदा होती है,
वह मोह है ।
'मैं कौन हूँ'---यह जानने से प्रेम आता है ।
प्रेम ज्ञान है ।
मोह अज्ञान है ।
प्रेम निरपेक्ष है---सबके, समस्त के प्रति है ।
वह 'पर' निर्भर नहीं है । वह स्वयं में है ।
वह 'किसी से' नहीं होता है । बस, होता है ।
बुद्ध उसे करुणा कहते हैं ।
महाबीर उसे अहिंसा कहते हैं ।
वह अकारण है, इसलिए नित्य है ।
मोह अनित्य है ।
कारण से होता है ।
'पर' निर्भर है ।
सापेक्ष है ।
एक के प्रति है ।
इसलिए, दु:ख का मूल है ।
प्रेम आता है, जब मोह जाता है ।
मोह-मुक्ति प्रेम से होती है ।
इससे प्रेम पा लेना, सब कुछ पा लेना है ।
प्रेम मुक्ति है ।
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रजनीश के प्रणाम
१४-०२-१९६२
[प्रति : श्री भीखमचन्द जी कोठारी, हिंगोली, महाराष्ट्र]
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