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आनन्द है----निर्विचार स्व-प्रतिष्ठा में

आनन्द है----निर्विचार स्व-प्रतिष्ठा में

प्रिय सोहन,

प्रेम । धूप घनी हो गयी है और मैं एक वृक्ष की
छाया में बैठा हूँ । मैं अकेला हूँ और आकाश में
उड़ते बादलों को देख रहा हूँ ।

बादलों की भाँति ही बेजड़, विचार होते हैं ।

और, जैसे बादल आकाश को घेर लेते हैं, एेसे
ही विचार आत्मा को ।

बादलों को हटते ही आकाश के दर्शन होते हैं ।

और, विचारों के हटते ही आत्मा के ।

ओर, विचारशून्य हो, स्वयं को जानना ही
आनन्द है ।

जब कोई इस भाँति स्वयं में स्थिर होता है,
तभी आनन्द को उपलब्ध हो जाता है ।

जिन्हें आनन्द खोजना हो, उन्हें निर्विचार को
खोजना होता है ।

माणिक बाबू को प्रेम । बच्चों को आशीष ।
जल्दी ही तुझसे मिलने की आशा में ।

{__________}
रजनीश के प्रणाम
४-६-१९६५
गाडरवारा

[प्रति : सुश्री सोहन बाफना, पूना]