जो है---है, फिर द्वन्द्व कहॉं
osho
Wed, 23/12/2020 - 13:59 pm
प्रिय गीतगोविन्द,
प्रेम । निराश क्यों होते हो ?
क्या निराशा अति-आशा का ही परिणाम नहीं है ।
उदास क्यों होते हो ?
क्या उदासी अति-अपेक्षा (Expectation) की ही
छाया नहीं है ।
निराशा पूर्ण हो, तो फिर निराश होने का उपाय नहीं
रहता है ।
उदासी पूर्ण हो, तो वह भी उत्सव बन जाती है ।
इसलिए कहता हूँ : द्वन्द्व छोड़ो ।
यह धूप-छॉंव का खेल छोड़ो ।
जागो और जानो कि जो है---है ।
अंधकार तो अंधकार ।
मृत्यु तो मृत्यु ।
जहर तो जहर ।
और फिर देखो : अंधकार कहॉं है !
और फिर खोजो : मृत्यु कहॉं है ?
अंधकार है---आलोक की आकांक्षा में ।
मृत्यु है---अनंत जीवेषणा में ।
और, जहर अमृत की मॉंग के अतिरिक्त और
कुछ नहीं है ।
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रजनीश के प्रणाम
१७-१२-१९७०
[प्रति : स्वामी गीतगोविन्द, पोस्ट-नवरंगपुरा, अहमदाबाद]
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