Skip to main content

जो है---है, फिर द्वन्द्व कहॉं

जो है---है, फिर द्वन्द्व कहॉं

 प्रिय गीतगोविन्द,

प्रेम । निराश क्यों होते हो ?

क्या निराशा अति-आशा का ही परिणाम नहीं है ।

उदास क्यों होते हो ?

क्या उदासी अति-अपेक्षा (Expectation) की ही
छाया नहीं है ।

निराशा पूर्ण हो, तो फिर निराश होने का उपाय नहीं
रहता है ।

उदासी पूर्ण हो, तो वह भी उत्सव बन जाती है ।

इसलिए कहता हूँ : द्वन्द्व छोड़ो ।

यह धूप-छॉंव का खेल छोड़ो ।

जागो और जानो कि जो है---है ।

अंधकार तो अंधकार ।

मृत्यु तो मृत्यु ।

जहर तो जहर ।

और फिर देखो : अंधकार कहॉं है !

और फिर खोजो : मृत्यु कहॉं है ?

अंधकार है---आलोक की आकांक्षा में ।

मृत्यु है---अनंत जीवेषणा में ।

और, जहर अमृत की मॉंग के अतिरिक्त और
कुछ नहीं है ।

{______________}
रजनीश के प्रणाम
१७-१२-१९७०

[प्रति : स्वामी गीतगोविन्द, पोस्ट-नवरंगपुरा, अहमदाबाद]