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गूँगे का गुड़

गूँगे का गुड़

 मेरे प्रिय,

प्रेम । नहीं, वर्णन नहीं कर सकोगे
उसका, जो कि अनुभव के क्षितिज पर
ऊगना प्रारम्भ हुआ है ।

क्योंकि, सब शब्द ज्ञात हैं ।

और, जो उतर रहा है, प्राणों के गहरे
में, वह नितान्त अज्ञात है ।

उसकी प्रत्यभिज्ञा (Recognition)
भी तो नहीं होती है ।

जिसे पूर्व कभी जाना ही नहीं; उसे
पहचानोगे कैसे ?

और, मजा तो यह है कि वह
अपूर्व-ज्ञात सदा-सदैव का जाना हुआ
ही अनुभवति होता है !

यही है रहस्य---यही है पहेली, जो
कि दो और दो चार की भाँति सीधी और
साफ और सुलझी हुई भी है !

पर अनुभव (Experience) में जो
सुलझी-सुलझाई बात है, शब्दों में---
अभिव्यक्ति में उसी की उलझन का कोई
अंत ही नहीं है ।

इसलिए, शब्दों में पड़ो ही मत ।

जानो और जियो ।

खाओ और खून बनाओ ।

पीयो और पचाओ ।

और, जब मन हो कहने का, तो
पहले कुछ और कहने के कहो :
"गूँगे का गुड़" !

और फिर, पहले गुड़ का स्वाद लो
और बने तो फिर चुप ही रहो ।

{____________}
रजनीश के प्रणाम
११-३-१९७१

[प्रति : श्री मदनलाल, अमृतसर, पंजाब]