प्रेम के निकट
Anand
Wed, 23/12/2020 - 13:19 pm
प्यारे किरण,
प्रेम । निश्चय ही जब कुछ कहने जैसा होता है,
तो वाणी ठिठक जाती है ।
और शब्दों की भीड़ की जगह नि:शब्द का
शून्याकाश उभर आता है ।
प्रेम के निकट ।
प्रार्थना के द्वार पर ।
परमात्मा के स्मरण में ।
लेकिन, तब मौन भी बोलता है और शून्य में
भी सम्वाद होता है ।
जब भी तुम मेरे पास आये, तभी मैंने जाना कि
बादलों से भरे आये थे, लेकिन अचानक आकाश
से ख़ाली हो गये हो ।
और, इसके अतिरिक्त मेरे पास भी तो नहीं
आ सकते थे न ?
शून्य के पास शून्य होकर ही तो जाया जा
सकता है न ?
शब्द से मेरे साथ सेतु नहीं बनता है ।
क्योंकि, मैं नि:शब्द हूँ ।
बोलकर मुझसे कैसे बोलोगे ?
क्योंकि, मैं सदा से चुप हूँ ।
दिन रात बोलकर भी !
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रजनीश के प्रणाम
२१-१-१९७१
[प्रति : श्री किरण, पूना, महाराष्ट्र]
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