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प्रेम के निकट

प्रेम के निकट

प्यारे किरण,

प्रेम । निश्चय ही जब कुछ कहने जैसा होता है,
तो वाणी ठिठक जाती है ।

और शब्दों की भीड़ की जगह नि:शब्द का
शून्याकाश उभर आता है ।

प्रेम के निकट ।

प्रार्थना के द्वार पर ।

परमात्मा के स्मरण में ।

लेकिन, तब मौन भी बोलता है और शून्य में
भी सम्वाद होता है ।

जब भी तुम मेरे पास आये, तभी मैंने जाना कि
बादलों से भरे आये थे, लेकिन अचानक आकाश
से ख़ाली हो गये हो ।

और, इसके अतिरिक्त मेरे पास भी तो नहीं
आ सकते थे न ?

शून्य के पास शून्य होकर ही तो जाया जा
सकता है न ?

शब्द से मेरे साथ सेतु नहीं बनता है ।

क्योंकि, मैं नि:शब्द हूँ ।

बोलकर मुझसे कैसे बोलोगे ?

क्योंकि, मैं सदा से चुप हूँ ।

दिन रात बोलकर भी !

{__________}
रजनीश के प्रणाम
२१-१-१९७१

[प्रति : श्री किरण, पूना, महाराष्ट्र]