शब्दहीन सम्बाद में दीक्षा
Anand
Wed, 23/12/2020 - 13:16 pm
प्रिय ब्रह्मदत्त,
प्रेम । साथ ही हूँ तुम्हारे ।
बोलता भी हूँ ।
तुम सुनते भी हो ।
लेकिन, निश्चय ही अभी समझ
नहीं पाते हो ।
यह द्वार है नया ।
आयाम है अपरिचित ।
भाषा है अनजान ।
पर धैर्य रखो ।
'धीरे-धीरे' सब समझ पाओगे ।
शब्दहीन सम्बाद में दीक्षा दे रहा हूँ ।
मौन हो सुनते रहो ।
समझने की अभी चिन्ता ही न करो ।
क्योंकि, उससे भी मौन भंग होता है ।
और, मन गति करता है ।
अभी तो, बस सुनो ही ।
सुनने की गहराई ही समझने का
जन्म बनती है ।
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रजनीश के प्रणाम
२२-१-१९७१
[प्रति : श्री ब्रह्मदत्त, तारदेव, बम्बई-३४]
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