जीवन-संघर्ष के बीच फलित सम्यक शांति
प्रिय नर्मदा (नीता),
प्रेम । तेरा पत्र ।
हृदय में जो हो रहा है, उसे जानकर
आनन्दित हूँ ।
ध्यान गहरी-से-गहरी शान्ति ले आयेगा ।
अच्छे लक्षण प्रगट हो रहे हैं ।
लेकिन, स्मरण रहे कि शान्ति भी दो
प्रकार की होती है ।
एक जीवित की और एक मृत की ।
मैं दूसरे प्रकार की शान्ति के पक्ष में
नहीं हूँ ।
क्योंकि, वह वस्तुत: शान्ति ही नहीं है ।
जीवन से भागकर जो शान्ति मिलती है,
वह झूठी है ।
वह शान्ति नहीं, वरण अशान्ति को प्रकट
करने वाले अवसरों का अभाव मात्र है ।
इसलिए, यदि वास्तविक शान्ति चाहती हो,
तो जीवन से मुख मो़ड़नेवाली भूल से बचना ।
जीवन के संघर्ष में जो शान्ति सत्य है, बस,
वही सत्य है ।
जीवन-युद्ध को छोड़कर भागना नहीं है ।
वरन्, उसमें ही खड़े होकर स्वयं को
जीतना है ।
भागना संन्यास नहीं, वरन् निपट
कायरता है ।
संन्यास तो स्वयं का इतना आमूल परिवर्तन
है कि फिर संसार रह ही नहीं जाता है ।
भागने में तो संसार का भय है ।
और, संन्यास तो चित्त की वह दशा है, जब
संसार स्वप्न की तरह रह जाता है ।
न भोगने योग्य---न भागने योग्य ।
संसार तो, बस, जागने योग्य है ।
श्री नन्दाणी जी को मेरे प्रणाम ।
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रजनीश के प्रणाम
३-१२-१९६६
प्रति : कुमारी एन० आर० नन्दाणी (मा योग गीता)
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