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ज्वलन्त प्यास है द्वार--समाधि का

ज्वलन्त प्यास है द्वार--समाधि का

 प्रिय कोठारी जी,

स्नेह । संध्या बीते अंधेरे में बैठा हूँ । कल से आपका स्मरण है ।
पत्र मिला है, तब से आपके सम्बन्ध में सोचता हूँ ।

एक प्यास आपमें अनुभव करता हूँ ।

आपमें जीवन के सत्य को जानने की उत्कट अभिलाषा है ।

उस प्यास को और गहराना है ।

इतना कि प्यास ही प्यास रह जाये ।

फिर, द्वार अपने से खुल जाते हैं ।

हम चाहना ही नहीं जानते, अन्यथा सत्य कितना निकट है !

सत्य पाने की चाह को श्वास-श्वास में भर लेना है ।

पूरा मन-प्राण उसके लिये ही जल उठता है ।

भक्ति-योग में इसे 'विरह' कहा है ।

यह जलन पहुँचा देती है ।

यह जलन समाधि में ले जाती है ।

यह हो जाने पर अचानक ध्यान घट जाता है ।

चित्त स्थिर हो जाता है ।

दौड़ छूट जाती है ।

और, जो दिखता है, उसका शब्द में कोई नाम नहीं है ।

पर, वह अनाम, प्यास को सदा को ही मिटा जाता है ।

इतना आश्वासन है कि प्यास है, तो प्यास मिटाने का
मार्ग भी है ।

और, वहाँ पहुँचना भी है, जहाँ कि पूर्ण तुष्टि है ।

{_______________}
रजनीश के प्रणाम
०७-१२-१९६१

[प्रति : श्री भीखमचन्द कोठारी, हिंगोली, महाराष्ट्र]