शाश्वत आनन्द के राज्य में प्रतिष्ठा
प्रिय चिदात्मन्,
आपका प्रीतिपूर्ण पत्र मिला ।
आपने एक अभिशाप को वरदान अनुभव
किया है, यह जानकर मैं अत्यन्त आनन्दित
हुआ हूँ ।
शरीर तो आज है, कल नहीं होगा ।
पर, उसके भीतर कुछ है---जो कल भी था,
आज भी है और कल भी होगा ।
वस्तुत:, उस अन्तस् के जगत् में आज-कल
नहीं है ।
वहाँ समय नहीं है ।
वह तो है : शाश्वत---और सनातन ।
वह शुद्ध 'होना मात्र' है ।
इस शाश्वत को अनुभव करना है ।
उसके अनुभव के अभाव में जीवन में
सब-कुछ भी हो, तो भी कुछ भी नहीं है ।
क्योंकि, उसके अतिरिक्त शेष सब जल
पर खींची गयी लकीरों की भाँति है ।
और, उस अनुभव के सद्भाव में यदि जीवन
में कुछ भी न हो, तब भी सब-कुछ है ।
क्योंकि, उस अनुभव से ही वास्तविक
जीवन का प्रारम्भ है ।
वही है जीवन, शेष सब मृत्यु है ।
इसलिए ही, जिनके पास कुछ भी नहीं है,
उनके लिए भी समृद्धि और सम्पदा का द्वार बंद
नहीं होता है ।
सब-कुछ के अभाव में भी बादशाह हुआ
जा सकता है ।
सच तो यह है कि जिनके पास कुछ था,
उन्हें असली बादशाहत पाने के लिए उसे छोड़
देना पड़ा था ।
मैंने जब इस बादशाहत को अनुभव किया,
तो मैंने पाया कि दु:ख तो था ही नहीं, अन्धेरा तो
था ही नहीं ।
मैं ( उसके पहले ) अपने प्रति ही पीठ
किये था ।
और, वही था दु:ख, वही था अंधकार ।
केवल 'स्व' को जानने की बात है और आनंद
के राज्य में प्रतिष्ठा हो जाती है ।
हम प्यासे हैं और आँखें दिशा-दिशा में तृप्ति
को खोज रही है ।
पर, क्या हम प्यास के पीछे भी झाँककर
देखेंगे ?
सागर वहाँ है ।
केवल मुड़कर देखना है, और सब पा लिया
जाता है ।
*******
आशा है कि बम्बई से पूर्ण स्वस्थ होकर
आप लौटेंगे ।
बहुत हुआ, अब बीमारी को छोड़िये भी !
सब को मेरे प्रणाम कहें ।
{__________}
रजनीश के प्रणाम
१२-१-१९६४
[प्रति:श्री भीखमचन्द देशलहरा, बुलढाना,महाराष्ट्र]
- 12 views