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अध्‍यात्‍म उपनिषद

अध्‍यात्‍म उपनिषद 

यह उपनिषद अध्यात्म का सीधा साक्षात्कार है। सिद्धांत इसमें नहीं हैं, इसमें सिद्धों का अनुभव है। इसमें उस सब की कोई बातचीत नहीं है जो कुतूहल से पैदा होती है, जिज्ञासा से पैदा होती है। नहीं, इसमें तो उनकी तरफ इशारे हैं जो मुमुक्षा से भरे हैं, और उनके इशारे हैं जिन्होंने पा लिया है।"—ओशो


  • पुस्तक के कुछ विषय-बिंदु:
  • शिक्षक होने में मजा क्या है?
  • कहां खोजें परमात्मा को?
  • वासना का अर्थ क्या है?
  • मृत्यु जब घटती है तो कौन मरता है?

  • धर्म, दर्शन, विज्ञान, इतिहास, साहित्य, संस्कृति, कला आदि का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जो ओशो से अछूता बचा हो। वे विद्या-व्यसनी रहे, उनका विशाल पुस्तकालय इसका प्रमाण है।
    वेद, उपनिषद, पुराण, महाभारत, गीता, बाइबिल, धम्मपद, ग्रंथसाहिब आदि सब कुछ उन्होंने आत्मसात कर लिया है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने धर्म-ग्रंथों में लिखे शब्द को यथावत स्वीकार नहीं किया। उस शब्द की भावना को अपने मौलिक चिंतन की कसौटी पर कसा और उसके गूढ़ अर्थ को प्रकट किया। उनकी दृष्टि एक वैज्ञानिक की दृष्टि है।—यशपाल जैन(सुप्रसिद्ध लेखक एवं विचारक)

सामग्री तालिका

अध्याय शीर्षक

    अनुक्रम

    #1: जीवन के द्वार की कुंजी

    #2: परमात्मा मझधार है

    #3: नेति-नेति

    #4: अमृत का जगत

    #5: वासना का नाश ही मोक्ष है

    #6: जीवन एक अवसर है

    #7: चैतन्य का दर्पण

    #8: वैराग्य का फल ज्ञान है

    #9: ब्रह्म की छाया संसार है

    #10: सत्य की यात्रा के चार चरण

    #धर्म-मेघ समाधि: Leben

    #12: वैराग्य आनंद का द्वार है

    #13: जीवन्मुक्त है संत

    #14: आकाश के समान असंग है जीवन्मुक्त

    #15: मेरे का सारा जाल कल्पित है

    #16: एक और अद्वैत ब्रह्म

    #17: धर्म है परम रहस्य

 

ध्यान साधना शिविर, माउंट आबू में हुई प्रवचनमाला के अंतर्गत ओशो द्वारा अध्यात्म उपनिषद के सूत्रों पर दिए गए सत्रह प्रवचन


उद्धरण : अध्यात्म उपनिषद - सत्रहवां प्रवचन - धर्म है परम रहस्य

"यह उपनिषद बड़े अनूठे ढंग से समाप्त होता है। गुरु के उपदेश से समाप्त नहीं होता, शिष्य की उपलब्धि से समाप्त होता है।

गुरु ने क्या कहा, इस पर ही समाप्त नहीं होता; शिष्य को क्या हो गया, इस पर समाप्त होता है। और जब तक कोई शिक्षा हो न जाए जीवन, तब तक उसका कोई भी मूल्य नहीं है। जब तक कोई शिक्षा जीवंत न हो सके, तब तक मन का विलास है।

उपनिषद मन का विलास नहीं है, जीवन का रूपांतरण है।

गुरु ने अपांतरम को दी, अपांतरम ने ब्रह्मा को दी, ब्रह्मा ने घोरांगिरस को दी, घोरांगिरस ने रैक्व को दी, रैक्व ने राम को दी, राम ने समस्त भूतप्राणियों को दी। और हमने पुनः इस अदभुत चिंतन, दर्शन, साधन की पद्धति को, फिर से अपने भीतर जगाने की कोशिश की, फिर से थोड़ी लौ को उकसाया।

यहां से जाने के बाद, उस लौ को उकसाते रहना। कभी ऐसी घड़ी जरूर आ जाएगी कि आप भी कह सकेंगे:

‘अभी-अभी देखा था उस जगत को, वह कहां गया? क्या वह नहीं है?’

और जिस दिन आपको भी ऐसा अनुभव होगा, उस दिन आप भी कह सकेंगे:

‘मैं हरि हूं, मैं सदाशिव हूं, अनंत हूं, आनंद हूं, मैं ब्रह्म हूं।’

और जब तक यह आपके भीतर न हो जाए, तब तक कैसा यह निर्वाण का उपदेश? कैसा यह वेद का सार? और तब तक यह उपनिषद यहां तो समाप्त हो गया, लेकिन आपके लिए समाप्त नहीं हुआ है।

एक दिन ऐसा आए कि आप भी कह सकें कि उपनिषद की शिक्षा मेरे लिए भी समाप्त हो गई। मैं वहां पहुंच गया जहां उपनिषद पहुंचाना चाहते हैं।"—ओशो 

 

अधिक जानकारी
Publisher Divyansh Publication
ISBN-13 978-93-84657-43-7
Number of Pages 332

 

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