ज्यूं था त्यूं ठहराया
ज्यूं था त्यूं ठहराया
मैं तो इतना ही चाहता हूं तुमसे कि तुम सारे पक्षपातों से मुक्त हो जाना। मेरी बातों को भी मत पकड़ना, क्योंकि मेरी बातें पकड़ोगे, तो वे पक्षपात बन जाएंगी। बातें ही मत पकड़ना। तुम्हें निर्विचार होना है। तुम्हें मौन होना है। तुम्हें शून्य होना है। तभी तुम्हारे भीतर ध्यान का फूल खिलेगा। और ध्यान का फूल खिल जाए तो अमृत तुम्हारा है, परमात्मा तुम्हारा है। एस धम्मो सनंतनो! और ध्यान का फूल खिल जाए, तो रज्जब की बात तुम्हें समझ में आ जाएगी: ज्यूं था त्यूं ठहराया! तुम वहीं ठहर जाओगे, जो तुम्हारा स्वभाव है। स्वभाव में थिर हो जाना इस जगत में सबसे बड़ी उपलब्धि है।" ओशो
- पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:
- संस्कार का क्या अर्थ है?
- जीवन में इतना विरोधाभास क्यों है?
- मै ध्यान 'क्यों' करूं?
- यह जीवन क्या है? इस जीवन का सत्य क्या है?
- सत्य की कोई परंपरा नहीं होती?
- भारत क्यों विज्ञान को जन्म नहीं दे पाया?
सामग्री तालिका
अध्याय शीर्षक
अनुक्रम
#1: स्वभाव में थिरता
#2: संस्कृति का आधार : ध्यान
#3: आचार्यो मृत्युः
#4: संन्यास, सत्य, और पाखंड
#5: जागो--डूबो
#6: गुरु कुम्हार, शिष्य कुंभ है
#7: दुख से जागो
#8: इक साधे सब सधे
#9: आचरण नहीं--बोध से क्रांति
#10: बुद्धत्व और पांडित्य
प्रश्नोत्तर सीरीज के अंतर्गत पुणे में दी गईं दस OSHO Talks
उद्धरण : ज्यूं था त्यूं ठहराया - पहला प्रवचन - संस्कृति का आधार: ध्यान
मैं न तो चिंतक हूं, न विचारक, न मनीषी। चिंतन को हम बहुत मूल्य देते हैं; विचार को हम बड़ा सौभाग्य समझते हैं; मनीषा तो हमारी दृष्टि में जीवन का चरम शिखर है। लेकिन सत्य कुछ और है। न तो बुद्ध विचारक हैं, न महावीर, न कबीर। जिसने भी जाना है, वह विचारक नहीं है। जो नहीं जानता, वह विचारता है। विचार अज्ञान है। अंधा सोचता है: प्रकाश कैसा है, क्या है! आंख वाला जानता है, सोचता नहीं। इसलिए कैसा चिंतन? कैसा विचार?
- विचार और चिंतन अंधेरे में टटोलना है--और अंधे आदमी का। दर्शनशास्त्र की परिभाषा शॉपेनहार ने यूं की है--कि जैसे कोई अंधा आदमी अंधेरे में काली बिल्ली को खोजता हो, जो कि वहां है ही नहीं! विचारक, चिंतक, मनीषी--सब मन की प्रक्रियाएं हैं। और जहां तक मन है, वहां तक संस्कृति नहीं। मन का जहां अतिक्रमण है, वहीं संस्कृति का प्रारंभ है। मन का अतिक्रमण होता है ध्यान से। इसलिए मेरे देखे, मेरे अनुभव में, ध्यान ही एकमात्र कीमिया है, जो व्यक्ति को सुसंस्कृत करती है।
- मनुष्य जैसा पैदा होता है, प्राकृत, वह तो पशु जैसा ही है; उसमें और पशु में बहुत भेद नहीं। कुछ थोड़े भेद हैं भी तो गुणात्मक नहीं--परिमाणात्मक। माना कि पशु में थोड़ी कम बुद्धि है, आदमी में थोड़ी ज्यादा; मगर भेद मात्रा का है; कोई मौलिक भेद नहीं। मौलिक भेद तो ध्यान से ही फलित होता है। पशु को ध्यान का कुछ भी पता नहीं। और वे मनुष्य जो बिना ध्यान के जीते हैं और मर जाते हैं--नाहक ही जीते हैं, नाहक ही मर जाते हैं। अवसर यूं ही गया! अपूर्व था अवसर। जीवन सत्य के स्वर्ण-शिखर छू सकता था; खिल सकते थे कमल आनंद के; अमृत की वर्षा हो सकती थी; लेकिन ध्यान के बिना कुछ भी संभव नहीं।
- ध्यान का अर्थ है: वह कीमिया जो प्राकृत को संस्कृत करती है।जैसे कोई अनगढ़ पत्थर को गढ़ता है और मूर्ति प्रकट होती है। जैसे कोई खदान से निकले हीरे को निखारता है, साफ करता है, पहलू उभारता है, तब हीरे में चमक आती है, दमक आती है। तब हीरा हीरा होता है। हम सब पैदा होते हैं अनगढ़ पत्थर की भांति। वह हमारा प्राकृत रूप है। संभावना की तरह हम पैदा होते हैं। फिर उन संभावनाओं को--और वे अनंत हैं--वास्तविकता में रूपांतरित करना, संभावनाओं को सत्य बनाना, उसकी कला ध्यान है।
- लेकिन अक्सर यह हो जाता है कि हम ‘सभ्यता’ और ‘संस्कृति’ को पर्यायवाची बना लेते हैं। सभ्यता बाहर की बात है, संस्कृति भीतर की। ‘सभ्यता’ शब्द का अर्थ होता है: सभा में बैठने की योग्यता, समाज में जीने की क्षमता। औरों से कैसे संबंध रखना, इसकी व्यावहारिक कुशलता का नाम सभ्यता है--शिष्टाचार। भीतर कूड़ा-कचरा हो, भीतर क्रोध हो, भीतर ईर्ष्या हो, भीतर सब रोग हों, मगर कम से कम बाहर मुस्कुराए जाना! भीतर विषाद हो, मगर बाहर न लाना! भीतर घाव हों, घावों को फूलों से छिपाए रखना! दूसरों के साथ यूं मिलना जैसे कि तुम धन्यभागी हो, सब पा लिए हो! मुखौटे लगाए रखना!
- सभ्यता मुखौटे लगाना सिखाती है। फिर तरह-तरह के मुखौटे हैं--हिंदुओं के और, मुसलमानों के और; जैनों के और, बौद्धों के और; भारतीयों के और, चीनियों के और, रूसियों के और! फिर संसार मुखौटों से भरा हुआ है। इसलिए सभ्यताएं अनेक होंगी। भारत की अलग होगी और अरब की अलग होगी और मिश्र की अलग होगी। इतना ही क्यों, भारत में भी बहुत सभ्यताएं होंगी--जैन की अलग होगी, हिंदू की अलग होगी, मुसलमान की अलग होगी, ईसाई की अलग होगी, सिक्ख की अलग होगी; पंजाबी की अलग होगी, गुजराती की अलग होगी, महाराष्ट्रियन की अलग होगी; उत्तर की अलग होगी, दक्षिण की अलग होगी! भेद पर भेद होंगे; खंड पर खंड होंगे। लेकिन संस्कृति एक ही होगी। संस्कृति भारतीय नहीं हो सकती, हिंदू नहीं हो सकती, गुजराती नहीं हो सकती, पंजाबी नहीं हो सकती, बंगाली नहीं हो सकती। क्योंकि संस्कृति तो अंतरात्मा का परिष्कार है। सभ्यता बाहर की बात है। वह औपचारिक है। स्वभावतः अलग-अलग होगी। अलग मौसम, अलग भूगोल, अलग जरूरतें--निश्चित ही सभ्यता को अलग कर देंगी। वह एक जैसी नहीं हो सकती। पश्चिम में सभ्यता और होगी, वहां के अनुकूल होगी--वहां के भूगोल, वहां के मौसम, वहां की जलवायु के अनुकूल होगी। अब वहां जूते पहने रहना चौबीस घंटे, मोजे पहने रखना, टाई बांधे रखना--बिलकुल अनुकूल है। लेकिन मूढ़ हैं वे जो भारत में टाई बांधे घूम रहे हैं! सर्द मुल्कों में, हवा जरा भी भीतर न चली जाए, इसकी चेष्टा चलती है। लेकिन गर्म मुल्कों में, जहां पसीना बह रहा है, वहां लोग टाई कसे हुए बैठे हैं! इनसे ज्यादा मूढ़ और कौन होंगे? भारत में जूते कसे बैठे हैं दिन भर, मोजे भी पहने हुए हैं! पसीने से तरबतर हैं, बदबू छूट रही है। लेकिन उधार। सभ्यता उधार ली कि तुम सिर्फ मूढ़ता जाहिर करते हो।
- सभ्यता अलग-अलग होगी। तिब्बत में अलग होगी...।अब तिब्बत में ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करना, सभ्यता नहीं हो सकती। कैसे होगी? मरना है? डबल निमोनिया करना है? लेकिन भारत में तो रोज ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर लेना, सभ्यता होगी, निश्चित सभ्यता होगी। भारत में जमीन पर बैठना पद्मासन में बिलकुल सभ्य होगा। लेकिन पश्चिम में जमीन पर नहीं बैठा जा सकता। इतनी ठंड है, इतनी कठिनाई है। भारत में उघाड़े भी बैठो तो सभ्यता है, लेकिन पश्चिम में उघाड़े नहीं बैठ सकते हो। लेकिन संस्कृति भिन्न-भिन्न नहीं हो सकती, क्योंकि संस्कृति न तो मौसम से जुड़ी है, न भूगोल से, न राजनीति से, न परंपरा से। संस्कृति की कोई परंपरा नहीं होती। संस्कृति को तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर ही अन्वेषण करना होता है।
- संस्कृति पाने की कला ध्यान है, क्योंकि ध्यान से प्राकृत का परिष्कार होता है; क्रोध को करुणा बना दे--ऐसा चमत्कार होता है; वासना को प्रार्थना बना दे--ऐसा जादू; इसका पूरा विज्ञान कि जो-जो हमारे भीतर व्यर्थ है उसको छांट दे, ताकि सार्थक ही बच रहे; जो हमारे भीतर शुभ्रतम है, उसे उभार दे; अंधेरे को काट दे, दीये को जला दे, रोशन कर दे!
Type | फुल सीरीज |
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Publisher | ओशो मीडिया इंटरनैशनल |
ISBN-13 | 978-81-7261-319-8 |
Number of Pages | 308 |
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