ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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इस पुस्तक में ओशो आत्म-जागरण के उन पांच वैज्ञानिक उपकरणों पर चर्चा करते हैं जिन्हें पंच-महाव्रत के नाम से जाना जाता है--अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम व अप्रमाद।
ये पंच-महाव्रत जब ओशो की रसायन शाला में आते हैं तो ओशो अप्रमाद यानि होश, अवेयरनेस को बाकी चार से अलग कर लेते हैं और उसे विस्तीर्ण रूप से समझाते हुए एक मास्टर की हमें थमा देते हैं जिससे बाकी चार ताले सहज ही खुल जाते हैं।
"अप्रमाद साधना का सूत्र है। अप्रमाद साधना है।... अहिंसा--वह परिणाम है, हिंसा स्थिति है। अपरिग्रह--वह परिणाम है, परिग्रह स्थिति है। अचौर्य--वह परिणाम है, चोरी स्थिति है। अकाम--वह परिणाम है, कामवासना या कामना स्थिति है। इस स्थिति को परिणाम तक बदलने के बीच जो सूत्र है, वह है--अप्रमाद, अवेयरनेस, रिमेंबरिंग, स्मरण।"—ओशो
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:
अहिंसा
अपरिग्रह
अचौर्य
अकाम
अप्रमाद
ब्रह्मचर्य
संन्यास
तंत्र
सामग्री तालिका
अध्याय शीर्षक
अनुक्रम
#1: अहिंसा
#2: अपरिग्रह
#3: अचौर्य
#4: अकाम
#5: अप्रमाद
#6: अहिंसा
विवरण
पंच महाव्रत पर प्रश्नोत्तर सहित मुंबई में ओशो द्वारा दिए गए तेरह अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन
उद्धरण : ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया - दूसरा प्रवचन - अपरिग्रह
"परिग्रह का अर्थ वस्तुओं का होना नहीं होता। परिग्रह का अर्थ होता है--वस्तुओं पर मालकियत की भावना। परिग्रह का अर्थ होता है--पजेसिवनेस। कितनी वस्तुएं हैं आपके पास, इससे कुछ तय नहीं होता। आप किस दृष्टि से उन वस्तुओं का व्यवहार करते हैं, आप किस भांति उन वस्तुओं से संबंधित हैं, सब कुछ इस पर निर्भर है। और वस्तुओं के ही नहीं, हम व्यक्तियों के प्रति भी परिग्रही, पजेसिव होते हैं।
हिंसा के संबंध में कुछ बातें मैंने कल आपसे कहीं। परिग्रह, पजेसिवनेस, हिंसा का ही एक आयाम, एक डायमेंशन है। सिर्फ हिंसक व्यक्ति ही पजेसिव, परिग्रही होता है। जैसे ही मैं किसी व्यक्ति पर, किसी वस्तु पर मालकियत की घोषणा करता हूं, वैसे ही मैं गहरी हिंसा में उतर जाता हूं। बिना हिंसक हुए मालिक होना असंभव है। मालकियत हिंसा है। वस्तुओं की मालकियत तो ठीक ही है, व्यक्तियों की मालकियत भी हम रखते हैं।पति मालिक है पत्नी का। पति शब्द का अर्थ ही मालिक होता है, द ओनर। पति को हम स्वामी कहते हैं। स्वामी का मतलब होता है, मालिक। परिग्रह का अर्थ है--स्वामित्व की आकांक्षा। पिता बेटे का मालिक हो सकता है, गुरु शिष्य का मालिक हो सकता है। जहां भी मालकियत है वहां परिग्रह है, और जहां भी परिग्रह है वहां संबंध हिंसात्मक हो जाते हैं। क्योंकि बिना किसी के साथ हिंसा किये मालिक नहीं हुआ जा सकता; और बिना किसी को गुलाम बनाये मालिक नहीं हुआ जा सकता। और बिना परतंत्रता थोपे पजेसिव होना असंभव है।लेकिन क्यों है मनुष्य के मन में इतनी आकांक्षा कि वह मालिक बने? क्यों दूसरे का मालिक बनने की आकांक्षा है? दूसरे के मालिक बनने में इतना रस क्यों है?बहुत मजे की बात है: चूंकि हम अपने मालिक नहीं हैं, इसलिए। जो व्यक्ति अपना मालिक हो जाता है, उसकी मालकियत की धारणा खो जाती है। लेकिन हम अपने मालिक नहीं हैं और उसकी कमी हम जिंदगी भर दूसरों के मालिक होकर पूरी करते रहते हैं।"—ओशो
अधिक जानकारी
Publisher OSHO Media International
ISBN-13 978-81-7261-061-6
Number of Pages 328
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