पथ की खोज
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जो होशपूर्वक अपनी सारी क्रियाएं करेगा, इंद्रियों के सारे संबंधों में होश को जाग्रत रखेगा, निरंतर उसका स्मरण रखेगा जो भीतर बैठा है, उसका नहीं जो बाहर दिखाई पड़ रहा है, क्रमशः उसकी दृष्टि में परिवर्तन उत्पन्न होगा। रूप की जगह वह दिखाई पड़ेगा जो रूप को देखने वाला है। सारी क्रियाओं के बीच उसका अनुभव होगा जो कर्ता है। निरंतर के स्मरण, निरंतर की स्मृति--उठते-बैठते सतत चौबीस घंटे की जागरूक साधना के माध्यम से व्यक्ति इंद्रियों के उपयोग के साथ भी इंद्रियों से मुक्त हो जाता है--दृश्य विलीन हो जाते हैं, द्रष्टा का साक्षात शुरू हो जाता है। इंद्रियों का निरोध होता है, इंद्रियां रुकती हैं। उनका बहिर्गमन विलीन हो जाता है, वे अंतर्गमन को उपलब्ध हो जाती हैं।" ओशो
- पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:
- कैसे होगा इंद्रिय-निरोध?
- पुण्य और पाप की परिभाषा
- स्वयं की खोज का विज्ञान
- विद्रोह का क्या अर्थ है?
सामग्री तालिका
अध्याय शीर्षक
अनुक्रम
#1: आनंद हमारा स्वरूप है
#2: आत्म-दर्शन
#3: मूर्च्छा परिग्रह
#4: जीवन-दर्शन
#5: पथ की खोज
#6: सूर्य की ओर उड़ान
विवरण
प्रश्नोत्तर प्रवचनमाला के अंतर्गत ओशो द्वारा दिए गए पांच अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन
उद्धरण : पथ की खोज - पहला प्रवचन - आनंद हमारा स्वरूप है
"मनुष्य के पूरे इतिहास में कितने लोग प्रकाश को उपलब्ध हुए हैं, कितने जीवन उनसे प्रकाशित हो गए हैं, कितनी चेतनाएं मृत्यु के घेरे को छोड़ कर अमृत के जीवन को पा गई हैं, कितने लोगों ने पशु को नीचे छोड़ कर प्रभु के उच्च शिखरों को उपलब्ध किया है।"
"लेकिन उस अनुभूति को, उस संक्रमण की अनुभूति को आज तक शब्दों में बांधा नहीं जा सका है।"
"उस अनुभूति को जो परम जीवन को उपलब्ध होने पर छा जाती है, उस लक्ष्य को, उस आनंद को, उस पुलक को जो पूरी ही चेतना को नये लोक में बहा देता है, उस संगीत को जो सारे विकास को विसर्जित कर देता है, आज तक शब्दों में बांधा नहीं जा सका है। आज तक कोई भी शब्द उसको प्रकट नहीं कर सके। आज तक कोई शास्त्र उसको कह नहीं सका। परलोक जो कहा नहीं जा सकता उसे कैसे कहूंगा? "
"तब में पूछता हूं अपने से कि क्या बोलूं? निश्चित आपको बोलना। बोलना धार्मिक नहीं है, बोलना धार्मिक अनुभूति में कोई संक्रमण है। कोई संवाद नहीं है धार्मिक। बोलने के माध्यम से, विचार के माध्यम से, तर्क-चिंतन के माध्यम से हम उसे नहीं पा सकते जो उन सबके पीछे खड़ा है। जिसमें चिंतन उठता है और जिसमें चिंतन विलीन हो जाता है, जिससे विचार के बबूले उठते हैं और जिसमें विचार के बबूले फूट जाते हैं, जो विचार के पहले भी है और विचार के बाद भी होगा, उसे पकड़ लेने का विचार का कोई रास्ता नहीं।"
"इसलिए मैं कोई उपदेश दूं, कुछ समझाऊं--दंभ, अहंकार, भ्रांति और अज्ञान होगा। फिर मैंने अनुभव किया, किसी को उपदेश देना किसी का अपमान करना है। किसी को शिक्षा देना यह स्वीकार कर लेना है कि दूसरी तरफ जो है वह अज्ञानी है। इस जगत में कोई भी अज्ञानी नहीं है। "
"इस जगत में किसी के अज्ञानी होने की संभावना भी नहीं है, क्योंकि हम स्वरूप से ज्ञानवंत हैं। मैं जो हूं वह स्वरूप से ज्ञानवंत है। अज्ञान हमारी कल्पना है। अज्ञान हमारा आरोपित है। अज्ञान हमारा अर्जित है। हम ज्ञानवंत थे। और इस सत्य को केवल अगर उदघटित कर दें अपने भीतर तो ज्ञान कहीं बाहर से लाना नहीं होता है। जो भी बाहर से आया वह ज्ञान नहीं है। जो बाहर से आ जाए वह ज्ञान नहीं हो सकता। बाहर से आया हुआ सब अज्ञान है। मैं तो परिभाषा ही यही कर पाया जो बाहर से आए--अज्ञान, जो भीतर से जाग्रत हो--ज्ञान।" ओशो
अधिक जानकारी
Publisher OSHO Media International
ISBN-13 978-8172612474
Number of Pages 112
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