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नहीं सांझ नहीं भोर

चरणदास के पदों पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई सीरीज के अंतर्गत दी गईं दस ओशो टाक्स

अब तक दुनिया में दो ही तरह के धर्म रहे हैं--ध्यान के और प्रेम के। और वे दोनों अलग-अलग रहे हैं। इसलिए उनमें बड़ा विवाद रहा। क्योंकि वे बड़े विपरीत हैं। उनकी भाषा ही उलटी है। ध्यान का मार्ग विजय का, संघर्ष का, संकल्प का। प्रेम का मार्ग हार का, पराजय का, समर्पण का। उनमें मेल कैसे हो? इसलिए दुनिया में कभी किसी ने इसकी फिकर नहीं की कि दोनों के बीच मेल भी बिठाया जा सके। मेरा प्रयास यही है कि दोनों में कोई झगड़े की जरूरत नहीं है। एक ही मंदिर में दोनों तरह के लोग हो सकते हैं। उनको भी रास्ता हो, जो नाच कर जाना चाहते हैं। उनको भी रास्ता हो, जो मौन होकर जाना चाहते हैं। अपनी-अपनी रुचि के अनुकूल परमात्मा का रास्ता खोजना चाहिए।" ओशो
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:

  • क्या बिना ध्यान के साक्षीभाव को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता?
  • विचारों पर नियंत्रण कैसे हो?
  • जीवन का अर्थ क्या है?
  •  
  • अभिनय क्या प्रेम को झूठा न बना देगा?
  • तुमने प्रेम किया है? या प्रेम हुआ है?--इस पर सोचना।
  • पूर्ण क्रांति का क्या अर्थ है?

सामग्री तालिका

अध्याय शीर्षक

    अनुक्रम

    #1: भक्त का अंतर्जीवन

    #2: प्रयास और प्रसाद का मिलन

    #3: जग माहीं न्यारे रहौ

    #4: ध्यान और साक्षीभाव

    #5: भक्ति की कीमिया

    #6: पात्रता का अर्जन

    #7: गुरु-कृपा-योग

    #8: ध्यान और प्रेम

    #9: मुक्ति का सूत्र

    #10: अभिनय अर्थात अकर्ता-भाव

विवरण
चरणदास के पदों पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई प्रवचनमाला के अंतर्गत ओेशो द्वारा दिए गए दस प्रवचन।

उद्धरण : नहीं सांझ नहीं भोर - चौथा प्रवचन - ध्यान और साक्षीभाव

"मैं जो कहता हूं, उसे सुन लेने मात्र से, समझ लेने मात्र से तो अनुभव में नहीं उतरना होगा। कुछ करो। मैं जो कहता हूं, उसके अनुसार कुछ चलो। मैं जो कहता हूं, उसको केवल बौद्धिक संपदा मत बनाओ। नहीं तो कैसे अनुभव से संबंध जुड़ेगा? मैं गीत गाता हूं--सरिताओं के, सरोवरों के। तुम सुन लेते हो। तुम गीत भी कंठस्थ कर लेते हो। तुम कहते हो: गीत बड़े प्यारे हैं। तुम भी गीत गुनगुनाने लगते हो--सरिताओं के, सरोवरों के। लेकिन इससे प्यास तो न बुझेगी।

गीतों के सरिता-सरोवर प्यास को बुझा नहीं सकते। और ऐसा भी नहीं कि गीतों के सरिता-सरोवर बिलकुल व्यर्थ हैं। उनकी सार्थकता यही है कि वे तुम्हारी प्यास को और भड़काएं ताकि तुम असली सरोवरों की खोज में निकलो। मैं यह जो गीत गाता हूं--सरिता-सरोवरों के--वह इसीलिए ताकि तुम्हारे हृदय में श्रद्धा उमगे कि हां, सरिता-सरोवर हैं, पाए जा सकते हैं। ताकि तुम मेरी आंख में आंख डाल कर देख सको कि हां, सरिता-सरोवर हैं; ताकि तुम मेरा हाथ हाथ में लेकर देख सको कि हां, कोई संभावना है कि हम भी तृप्त हो जाएं, कि तृप्ति घटती है; कि ऐसी भी दशा है परितोष की, जहां कुछ पाने को नहीं रहता; कहीं जाने को नहीं रहता; कि ऐसा भी होता है, ऐसा चमत्कार भी होता है जगत में--कि आदमी निर्वासना होता है। और उसी निर्वासना मे मोक्ष की वर्षा होती है। मैं गीत गाता हूं--सरिता-सरोवरों के, इसलिए नहीं कि तुम गीत कंठस्थ कर लो और तुम भी उन्हें गुनगुनाओ। बल्कि इसलिए ताकि तुम्हें भरोसा आए; तुम्हारे पैर में बल आए; तुम खोज पर निकल सको।

लंबी यात्रा है। जंगल-पहाड़ों से गुजरना होगा। हजार तरह के पत्थर-पहाड़ों को पार करना होगा। और हजार तरह की बाधाएं तुम्हारे भीतर हैं, जो तुम्हें तोड़नी होंगी। यात्रा दुर्गम है। मगर अगर भरोसा हो कि सरोवर है तो तुम यात्रा पूरी कर लोगे। अगर भरोसा न हो कि सरोवर है तो तुम चलोगे ही कैसे! पहला ही कदम कैसे उठाओगे? गीतों का अर्थ इतना ही है कि तुम्हें भरोसा आ जाए कि सरोवर हैं। और भरोसा काफी नहीं है। भरोसा सरोवर नहीं बन सकता। सरोवर खोजना होगा।... और मेरी बातें सुन-सुन कर अगर पहुंचना होता, तब तो बड़ी सस्ती बात होती। किसकी बात सुन कर कौन कब पहुंचा है? कुछ करो। कुछ चलो। उठो। पैर बढ़ाओ। परमात्मा संभव है, लेकिन तुम चलोगे तो ही। और परमात्मा भी तुम्हारी तरफ बढ़ेगा, लेकिन तुम चलोगे तो ही। तुम पुकारोगे तो ही वह आएगा। मिलन होता है, लेकिन मिलन उन्हीं का होता है जो उसे खोजते हुए दर-दर भटकते हैं। असली दरवाजे पर आने के पहले हजारों गलत दरवाजों पर चोट करनी पड़ती है। ठीक जगह पहुंचने के पहले हजारों बार गड्ढों में गिरना पड़ता है। जो चलते हैं, उनसे भूल-चूक होती है। जो चलते हैं, वे भटकते भी हैं। जो चलते हैं, उनको कांटे भी गड़ते हैं। जो चलते हैं, वे चोट भी खाते हैं। चलना अगर मुफ्त में होता होता, सुविधा से होता होता तो सभी लोग चलते। चूंकि चलना सुविधा से नहीं होता, इसलिए अधिक लोग अपने-अपने घरों में बैठे हैं, कोई चल नहीं रहा है। लेकिन गति के बिना उस परम की उपलब्धि नहीं है।... परमात्मा का असली स्वाद लेने के लिए उठो और चलो। ध्यान करो। यात्री बनो। दांव पर लगाना होगा। जुआरी हुए बिना कुछ भी नहीं हो सकता है।" ओशो
विवरण

अधिक जानकारी
Publisher    OSHO Media International
ISBN-13    978-81-7261-283-2
Number of Pages    348

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