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निर्वाण उपनिषद

ओशो कहते है—"ऋषि ऐसी प्रार्थना से शुरू करता है इस निर्वाण उपनिषद को, जिसमें निर्वाण की खोज की जाएगी—उस परम सत्य की, जहां व्यक्ति विलीन हो जाता है और सिर्फ विराट शून्य ही रह जाता है। जहां ज्योति खो जाती है अनंत में, जहां सीमाएं गिर जाती हैं असीम में, जहां मैं खो जाता हूं और प्रभु ही रह जाता है।"

 

पुस्तक के मुख्य विषय-बिंदु:

  • निर्वाण उपनिषद—अव्याख्य की व्याख्या
  • यात्रा—अमृत की, अक्षय की
  • अजपा गायत्री और विकार-मुक्ति का महत्व
  • आनंद और आलोक की अभीप्सा
  • ओशो कहते है—"ऋषि ऐसी प्रार्थना से शुरू करता है इस निर्वाण उपनिषद को, जिसमें निर्वाण की खोज की जाएगी—उस परम सत्य की, जहां व्यक्ति विलीन हो जाता है और सिर्फ विराट शून्य ही रह जाता है। जहां ज्योति खो जाती है अनंत में, जहां सीमाएं गिर जाती हैं असीम में, जहां मैं खो जाता हूं और प्रभु ही रह जाता है।"

सामग्री तालिका

    अनुक्रम
    #1: शांति पाठ का द्वार, विराट सत्य और प्रभु का आसरा
    #2: निर्वाण उपनिषद—अव्याख्य की व्याख्या का एक दुस्साहस
    #3: यात्रा—अमृत की, अक्षय की—नि:संशयता निर्वाण और केवल-ज्ञान की
    #4: पावन दीक्षा—परमात्मा से जुड़ जाने की
    #5: संन्यासी अर्थात जो जाग्रत है, आत्मरत है, आनंदमय है, परमात्म-आश्रित है
    #6: अनंत धैर्य, अचुनाव जीवन और परात्पर की अभीप्सा
    #7: अखंड जागरण से प्राप्त—परमानंदी तुरीयावस्था
    #8: स्वप्न-सर्जक मन का विसर्जन और नित्य सत्य की उपलब्धि
    #9: साधक के लिए शून्यता, सत्य योग, अजपा गायत्री और विकार-मुक्ति का महत्व
    #10: आनंद और आलोक की अभीप्सा, उन्मनी गति और परमात्म-आलंबन
    #11: अंतर-आकाश में उड़ान, स्वतंत्रता का दायित्व और शक्तियां प्रभु-मिलन की ओर
    #12: त्याग, निर्मल शक्ति और परम अनुशासन मुक्ति में प्रवेश
    #13: असार बोध, अहं विसर्जन और तुरीय तक यात्रा—चैतन्य और साक्षीत्व से
    #14: भ्रांति-भंजन, कामादि वृत्ति दहन, अनाहत मंत्र और अक्रिया में प्रतिष्ठा
    #15: निर्वाण रहस्य अर्थात सम्यक संन्यास, ब्रह्म जैसी चर्या और सर्व देहनाश

विवरण
साधना शिविर, माउंट आबू, राजस्‍थान में ओशो द्वारा निर्वाण उपनिषद पर दिए गए पंद्रह अमृत प्रवचनों का संकलन।

उद्धरण : निर्वाण उपनिषद - तेरहवां प्रवचन - असार बोध, अहं विसर्जन और तुरीय तक यात्रा—चैतन्य और साक्षीत्व से

"यह भी बहुत मजे की बात है कि उपनिषद का ऋषि और गणित के अंक का प्रयोग करता है, ब्रह्म के लिए। यह जानकर आप हैरान होंगे कि इस जगत में, इस पूरे मनुष्य की जानकारी में गणित ही अकेला शास्त्र है, जिसमें सबसे कम विवाद है। उसका कारण है। क्योंकि शब्द का कोई उपयोग नहीं है। अंकों का उपयोग है। अंकों में विवाद नहीं हो सकते। और दो और दो किसी भी भाषा में लिखे जाएं, और परिणाम चार किसी भी तरह कहा जाए, तो अंतर नहीं पड़ता है। इसलिए गणित सबसे कम विवादग्रस्त विज्ञान है। और वैज्ञानिक मानते हैं कि आज नहीं कल हमें सारे विज्ञान की भाषा को गणित की भाषा में ही रूपांतरित करना पड़ेगा, तो ही हम अन्य विज्ञानों और शास्त्रों के विवाद से मुक्त हो सकेंगे। बहुत पहले, हजारों साल पहले ऋषि उस ब्रह्म को, उस परम सत्ता को कहता है: द फोर्थ, चौथा, तुरीय।

मैंने कहा, एक तो तीन गुणों के जो पार है, वह चौथा। एक और गहन खोज, जिसका सारा श्रेय उपनिषदों को है और आधुनिक मनोविज्ञान उस श्रेय के ठीक-ठीक मालिक को खोज लेने में समर्थ हो गया है, कि उपनिषद ही उस श्रेय के हकदार हैं, वह है मनुष्य के चित्त की तीन दशाएं हैं--जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति। जागते हैं, स्वप्न देखते हैं, सोते हैं। अगर इन तीनों में ही मनुष्य समाप्त है, तो वह कौन है जो जागता है! वह कौन है जो सोता है! वह कौन है जो स्वप्न देखता है!

निश्चित ही चौथा भी होना चाहिए, जिस पर जागरण का प्रकाश आता है, जिस पर निद्रा का अंधकार आता है, जिस पर स्वप्नों का जाल बुन जाता है। वह द फोर्थ, चौथा होना चाहिए, वह तीन में नहीं हो सकता। अगर मैं तीन में से एक हूं, तो बाकी दो मेरे ऊपर नहीं आ सकते। अगर मैं जाग्रत ही हूं, तो निद्रा मुझ पर कैसे उतरेगी? अगर मैं निद्रा ही हूं, तो मुझ पर स्वप्नों की तरंगें कैसी बनेंगी? ये तीन अवस्थाएं हैं, और जो मैं हूं, वह निश्चित ही चौथा होना चाहिए। उपनिषद उसे तुरीय कहते हैं, वह जो चौथा है।"—ओशो

अधिक जानकारी
Publisher    Divyansh Publication
ISBN-13    978-81-7261-157-6
Number of Pages    316