पद घुंघरू बांध
पद घुंघरू बांध
- काम-ऊर्जा का रूपांतरण--संभोग में साक्षीत्व से कामवासना स्वाभाविक है।
- उससे लड़ना नहीं; अन्यथा उसके विकृत-रूप चित्त को घेर लेंगे।
- काम (Sex) को समझो और काम-कृत्य (Sex-Act) को भी ध्यान का विषय बनाओ।
- काम में, संभोग में भी साक्षी (Witness) बनो।
- संभोग में साक्षीभाव के जुड़ते ही काम-ऊर्जा (Sex-Energy) का रूपांतरण प्रारंभ हो जाता है।
वह रूपांतरण ही ब्रह्मचर्य है।- ब्रह्मचर्य काम का विरोध नहीं--काम-ऊर्जा का ही ऊर्ध्वगमन है।
- जीवन में जो भी है उसे मित्रता से और अनुग्रह से स्वीकार करो।
- शत्रुता का भाव अधार्मिक है।
- स्वीकार से परिवर्तन का मार्ग सहज ही खुलता है।
- शक्ति तो सदा ही तटस्थ है।
- वह न बुरी है, न अच्छी।
- शुभ या अशुभ उससे सीधे नहीं--वरन उसके उपयोग से ही जुड़े हैं। ओशो
सामग्री तालिका
अध्याय शीर्षक
1: अहं अज्ञान है--प्रेम ज्ञान है
2: प्यास की पीड़ा ही अंततः प्राप्ति बन जाता है
3: मृत परंपराओं व दासताओं से मुक्ति
4: सत्य के पथ पर अडिग और अदम्य साहस आवश्यक
5: नये जन्म की प्रसव-पीड़ा--रिक्तता व अभाव का साक्षात
6: मन के घास-फूसों की सफाई
7: धन की अंधापन
8: विश्वास-अविश्वास के द्वंद्व से शून्य मन
9: साधुता--कांटों में रह कर फूल बने रहने की क्षमता
10: समय के साथ नया होना ही जीवन है
11: जो है उसी का नाम ईश्वर है
12: असुरक्षा का स्रोत--सुरक्षा की अति आतुरता
13: जीओ पल-पल--न टालो कल पर
14: ज्ञान-सूत्र--‘‘यह भी बीत जाएगा’’
15: प्रार्थना में शब्द नहीं--सुने जाते हैं भाव
16: धर्म अभिव्यक्ति की सतत रूपांतरण प्रक्रिया
17: ईर्ष्या के सूक्ष्म हैं यात्रा-पथ
18: यही जवाब है इसका कि कुछ जवाब नहीं
19: स्वीकार से--शांति, शून्यता और रूपांतरण
20: प्रतीक्षारत तैयारी--विस्फोट को झेलने की
21: अहंकार चुराने वाले चोर
22: मिटने की तैयारी रख
23: एक ही भासता है अनेक
24: स्वीकार से दुख का विसर्जन
25: जन्मों का अंधेरा और ध्यान का दीया
26: प्रार्थना, श्रद्धा, समर्पण--बाह्य नहीं आंतरिक घटनाएं
27: आनंद का राज--न चाह सुख की, न भय दुख का
28: शब्दों की यात्रा में सत्य की मृत्यु
29: जीवन है--दुर्लभ अवसर
30: एकमात्र संपत्ति--परमात्म-श्रद्धा
31: प्रकाश-किरण से सूर्य की ओर
32: सुवास--आंतरिक निकटता की
33: ध्यान की सरलता--निःसंशय, निर्णायक व संकल्पवान चित्त के लिए
34: अदृश्य, अरूप, निराकार की खोज
35: आनंदमग्न भाव से नाचती, गाती, निर्भार चेतना का ही ध्यान में प्रवेश
36: शून्य, शांत व मौन में--वर्षा अनुकंपा की
37: चमत्कार--‘न-होने’ पर भी ‘होने’ का
38: असार्थक की अग्नि-परीक्षा
39: श्रद्धा के दुर्लभ अंकुर
40: ध्यान में प्रभु--इच्छा का उदघाटन
41: प्रतीक्षा में ही राज है परम
42: स्वयं को तैयार करना--श्रद्धा से, शांति से, संकल्प से
43: अभिशाप में भी वरदान खोजो
44: अवलोकन--वृत्तियों की उत्पत्ति, विकास व विसर्जन का
45: सिद्धांत--क्रांति का अंत है
46: प्रतिक्रियावादी तथाकथित क्रांतिकारी
47: सत्ता सदा की क्रांति-विरोधी है
48: ध्यान है--द्रष्टा, अकर्ता, अभोक्ता रह जाना
49: समग्र जिज्ञासा में प्रश्न का गिर जाना
50: खोना ही ‘उसे’ खोजने की विधि है
51: धैर्यपूर्वक पोषण--क्रांति के गर्भाधान का
52: आत्मविश्वास से खटखटाओ--प्रभु के द्वार को
53: अनजाना समर्पण
54: तुम्हारी समस्त संभावनाएं मेरे समक्ष साकार हैं
55: सूक्ष्म और अदृश्य कार्य
56: प्रभु-मंदिर की झलकें--ध्यान के द्वार पर
57: अनुभूति में बुद्धि के प्रयास बाधक
58: कामना दुख है, क्योंकि कामना दुष्पूर है
59: प्रभु-कृपा की अमृत-वर्षा और हृदय का उलटा पात्र
60: जन्मों का पुराना--विस्मृत परिचय
61: आनंद के आंसुओं से परिचय
62: प्रभु-प्रेम को पागल मानने वाले लोगों से
63: हृदय है अंतर्द्वार--प्रभु मंदिर का
64: पात्रता का बोध--सबसे बड़ी अपात्रता
65: प्रमाद है भ्रूण-हत्या--विराट संभावनाओं की
66: चाह और अपेक्षा है जननी दुख की
67: रूपांतरण के पूर्व की कसौटियां
68: ज्ञानी का शरीर भी मंदिर हो जाता है
69: भेद है अज्ञान में
70: जीवन-सत्य की ओर केवल मौन इशारे संभव
71: स्वयं रूपांतरण से गुजर कर ही समझ सकोगी
72: ज्ञान की गति है--अनूठी, सूक्ष्म और बेबूझ
73: शुभ आशीषों की शीतल छाया में
74: ऊर्जा-जागरण से देह-शून्यता
75: संन्यास है--मन से मनातीत में यात्रा
76: ध्यान--रूपांतरण की विधायक खोज
77: द्वंद्व अज्ञान में ही है
78: काम-ऊर्जा का रूपांतरण--संभोग में साक्षीत्व से
79: आत्म-सृजन का श्रम करो
80: मन का भिखमंगापन
81: स्वयं का मिटना ही एकमात्र तप है
82: वही दे सकते हैं--जो कि हम हैं
83: स्वर्ग और नरक--एक ही तथ्य के दो छोर
84: अधैर्य से साधना में विलंब
85: नासमझदारों की समझ
86: आदमी ऐसा ही जीता है--तिरछा-तिरछा
87: समग्रता से किया गया कोई भी कर्म अतिक्रमण बन जाता है
88: चाह से मुक्ति ही मोक्ष है
89: अंतर-अभीप्सा ही निर्णायक है
90: सत्य की खोज: लंबी यात्रा, अशेष यात्री
91: अज्ञात को ज्ञात से समझने की असफल चेष्टा
92: हर पल जीता हूं पूरा
93: जिंदगी तर्क और गणित से बहुत अधिक है
94: जीवन की धन्यता है--अभिव्यक्ति में--स्वयं की, स्वधर्म की
95: सम-चित्त में अद्वैत स्वरूप का बोध
96: संकल्प पूर्ण हुआ कि शून्य हुआ
97: साक्षी की प्रत्यभिज्ञा ही ध्यान है
98: साधना के मार्ग पर शत्रु भी मित्र है
99: शांत साक्षीभाव में ही डूब
100: आदमी की कुशलता--वरदानों को भी अभिशाप में बदलने की
101: गहरा खेल शब्दों का
102: पवित्र प्रार्थना--आंसुओं में नहाई
103: पीड़ा को उत्सव बना लेने की कला
104: वही है, वही है--सब ओर वही है
105: संकल्प के पंख--साधना में उड़ान
106: मुझसे मिलने का निकटतम द्वार--गहरा ध्यान
107: अंतः संन्यास का संकल्प
108: क्रोध के दर्शन से क्रोध की ऊर्जा का रूपांतरण
109: स्वरहीन संगीत में डूबो
110: समष्टि को बांट दिया ध्यान ही समाधि बन जाता है
111: प्रभु-द्वार पर हुई देर भी शुभ है
112: समझ (Understanding) ही मुक्ति है
113: संन्यास--रूपांतरण की कीमियां
114: उसका होना ही उसका ज्ञान भी है
115: जागे बिना सत्य से परिचय नहीं
116: साधना को तो सिद्धि तक पहुंचाना ही है
117: सदा स्मरण रखें--जीवन है एक खेल
118: साहस--अज्ञात में छलांग का
119: जिन खोजा तिन पाइयां
120: अथक श्रम--और परीक्षा धैर्य की
121: जीवन को उत्सव बना लेने की कला संन्यास है
122: प्रभु-पथ से लौटना नहीं है
123: स्वयं को खोकर ही पा सकोगे सर्व को
124: शून्य में नृत्य और स्वरहीन संगीत
125: ‘न-करना’ है करने की अंतिम अवस्था
126: अलंकार की सीमा
127: स्वयं को समझो
128: एकमात्र यात्रा--अंतस की
129: पर करो--कुछ तो करो
130: पहले समझो ही
131: अति सूक्ष्म हैं--अहंकार के रास्ते
132: अपनी चिंता पर्याप्त है
133: फूल, कांटे और साधना
134: जीवन है एक चुनौती
135: छलांग--बाहर--शरीर के, संसार के, समय के
136: स्वयं की खोज ही संन्यास है
137: पागल होने की विधि है यह--लेकिन प्रज्ञा में
138: प्रभु-प्रकाश की पहली किरण
139: अस्वस्थता को भी अवसर बना लो
140: दिन-रात की धूप-छांव स्वयं को भूल मत जाना
141: नियति का बोध परम आनंद है
142: स्वनिर्मित कारागृहों में कैद आदमी
143: समय रहते जाग जाना आवश्यक है
144: अमूर्च्छा का आक्रमण--मूर्च्छा पर
145: कुछ भी हो--ध्यान को नहीं रोकना है
146: देखो स्थिति और हो जाने दो समर्पण
147: नाचो-गाओ और प्रभु-धुन में डूबो
148: आनंद है महामंत्र
149: जीवन नृत्य है
150: पद घुंघरू बांध
विवरण
विभिन्न मित्रों व प्रेमियों को ओशो द्वारा लिखे गए 150 पत्रों का संग्रह
उद्धरण : पद घुंघरू बांध - क्रमांक : एक सौ उनचास - जीवन नृत्य है
आकाश से थोड़ा तालमेल बढ़ा। आंखों को विराट को पीने दे। दिन हो या रात--जब भी मौका मिले आकाश पर ध्यान कर। आकाश को उतरने दे हृदय में। शीघ्र ही बीच से परदा उठने लगेगा। भीतर और बाहर का आकाश आलिंगन करने लगेगा। स्वयं के मिटने में इससे सहायता मिलेगी। अहं के विसर्जन में इसमें मार्ग बनेगा। और यदि अनायास ही आकाश पर ध्यान करते-करते तन-मन नृत्य को आतुर हो उठे तो स्वयं को रोकना नहीं--नाचना। हृदयपूर्वक नाचना। पागल होकर नाचना। उस नृत्य से जीवन रूपांतरण की अनूठी कुंजी हाथ लग जाती है। क्योंकि नृत्य ही है अस्तित्व। अस्तित्व के होने का ढंग ही नृत्यमय है। अणु-परमाणु नृत्य में लीन हैं--ऊर्जा अनंत रूपों में नृत्य कर रही है। जीवन नृत्य है। ओशो
अधिक जानकारी
Publisher Divyansh Publication
ISBN-13 978-93-84657-49-9
Number of Pages 184
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